हर जगह से एक ही तरह के भ्रष्टाचार की कहानियां सामने आने लगी हैं
एक बार फिर मोदी जी के विकास मॉडल पर बड़ा सवाल खड़ा हो गया है। गुजरात के वडोदरा जिले के पादरा तालुका में गंभीरा पुल के गिरने से 15 लोगों की मौत हो गई और पांच लोग बुरी तरह घायल हो गए। यह हादसा केवल एक पुल का गिरना नहीं, बल्कि भ्रष्टाचार और लापरवाही की उस चादर का खुलासा है जो मोदी के ‘गुजरात मॉडल’ के नाम पर पूरे देश में बिछा दी गई है।
पुल गिरा, लेकिन सरकार का आत्मविश्वास अडिग
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के गृह राज्य में हादसों का यह सिलसिला नया नहीं है। मोरबी पुल हादसा तो अभी लोगों के जेहन से गया भी नहीं था, जिसमें सैकड़ों लोगों की जान गई थी। ताजा हादसा भी उसी लापरवाही का नतीजा है। गंभीरा पुल, जो मध्य और दक्षिण गुजरात को जोड़ता था, पिछले तीन साल से ‘खतरनाक’ घोषित था। लेकिन सरकार, प्रशासन और स्थानीय निकाय सब सोते रहे। रिपोर्ट्स बताती हैं कि पुल पर दरारें इतनी चौड़ी थीं कि नीचे बहती मही सागर नदी दिखाई देती थी।
‘स्पेस टेक्नोलॉजी’ से बनती सड़कें और पुल?
संसद में मोदी सरकार के मंत्री यह दावा करते रहे हैं कि भारत में सड़कें और पुल अब ‘स्पेस टेक्नोलॉजी’ से बनते हैं। लेकिन जमीनी हकीकत यह है कि पिछले दस वर्षों में पांच सौ से अधिक पुल गिर चुके हैं। सिर्फ गुजरात में पिछले चार साल में सोलह पुल गिर चुके हैं। यह कैसा ‘स्पेस टेक्नोलॉजी’ है जहां स्लैब टूटकर 110 फीट नीचे गिर जाते हैं और सरकार का सिस्टम सिर्फ पत्तियां लगाकर, स्लैबों को छुपाकर अपनी जिम्मेदारी खत्म कर देता है?
‘खतरे की घंटी’ बजती रही, लेकिन सुनवाई नहीं हुई
तीन साल पहले ही जांच रिपोर्ट में बताया गया था कि गंभीरा पुल खतरनाक स्थिति में है। फिर भी न तो मरम्मत कराई गई, न पुल बंद किया गया। उल्टा, सरकारी इंजीनियरों और ठेकेदारों ने इस रिपोर्ट को दबा दिया। यह हादसा लापरवाही नहीं, बल्कि सिस्टमेटिक क्रिमिनल नेग्लिजेंस का नतीजा है। यह सीधा सवाल उठाता है कि क्या इन लोगों पर हत्या का मुकदमा चलाया जाएगा?
भ्रष्टाचार की मोटी परत
यह हादसा बताता है कि मोदी मॉडल में सिर्फ विकास के दावे हैं, असल में विकास के नाम पर भ्रष्टाचार की मोटी परत चढ़ा दी गई है। पुल गिरते हैं, सड़कें धंसती हैं, लेकिन मंत्री और ठेकेदार ‘सब चंगा सी’ कहते हुए आगे बढ़ जाते हैं। इस हादसे में भी, जैसे ही पुल गिरा, तुरंत PM Cares Fund से मुआवजा बांटने की घोषणा कर दी गई। लेकिन असली जिम्मेदारी तय करने का कोई नाम नहीं लेता।
जमीनी पत्रकारिता का असर
हादसे से तीन महीने पहले एक स्थानीय पत्रकार ने इसी पुल पर खड़े होकर वीडियो बनाया था जिसमें साफ दिख रहा था कि स्लैबों के बीच गैप बन चुके हैं और पुल कभी भी गिर सकता है। लेकिन सरकार और प्रशासन ने उसे भी अनसुना कर दिया। आखिर जनता कब तक सिस्टम की इस बहरी दीवार से टकराती रहेगी?