मोदी सरकार की नीतियों के खिलाफ 9 जुलाई की आम हड़ताल ने देश भर में दिखाई ताकत
9 जुलाई 2025 को भारत ने एक नई करवट देखी। केरल से लेकर कश्मीर और राजस्थान से लेकर मेघालय तक देश के कोने-कोने में मज़दूर, किसान, छात्र, नौजवान और कर्मचारी एक स्वर में सड़कों पर उतरे। कारण था – बिहार में चुनाव आयोग द्वारा शुरू की गई वोट बंदी की प्रक्रिया और केंद्र सरकार की मज़दूर-किसान विरोधी नीतियाँ।
बिहार में वोट बंदी का विरोध
बिहार के हर जिले में गूंजती आवाज़ थी – “वोट बंदी बर्दाश्त नहीं होगी।” बिहार के आठ करोड़ मतदाताओं में से दो करोड़ के नाम हटाने की आशंका से गुस्सा फूटा। विपक्षी दलों का आरोप है कि केंद्र सरकार और चुनाव आयोग मिलकर लोकतांत्रिक अधिकार छीनने की कोशिश कर रहे हैं। यही वजह रही कि कांग्रेस नेता राहुल गांधी, तेजस्वी यादव, भागपा माले के महासचिव दीपांकर भट्टाचार्य, भागपा के डी. राजा, माकपा की वृंदा करात – पूरा इंडिया गठबंधन पटना में एक मंच पर दिखा।
तेजस्वी यादव ने स्पष्ट कहा – “मोधी जी याद रखिए, यह बिहार है। यहां न लोकतंत्र की हत्या होगी, न लोग चुप बैठेंगे।”
भागपा माले की निर्णायक भूमिका
इस विरोध में भागपा माले का ज़मीनी असर दिखा। गांव-गांव, मोहल्ले-मोहल्ले, हर जिले में उनके कार्यकर्ताओं ने धरना-प्रदर्शन किए। महासचिव दीपांकर भट्टाचार्य ने इसे लोकतंत्र पर सीधा हमला बताते हुए कहा कि बिहारियों को गिनीपिग समझने की भूल बीजेपी न करे।
केरल, तमिलनाडु, मेघालय से लेकर दिल्ली तक हड़ताल
केरल के कोच्चि में रिफाइनरी मज़दूरों ने हाईकोर्ट के बैन के बावजूद हरताल की। तमिलनाडु के चेन्नई में हज़ारों सफाई कर्मचारी सड़कों पर उतरे। मेघालय से भी व्यापक विरोध की तस्वीरें आईं। पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र, दिल्ली – हर राज्य में मज़दूरों और किसानों का आक्रोश दिखा। दिल्ली के जंतर-मंतर पर ट्रेड यूनियनों, राजनीतिक दलों और छात्र संगठनों का बड़ा जमावड़ा हुआ।
केंद्र की नीतियों के खिलाफ संयुक्त संघर्ष
प्रदर्शनकारियों ने केंद्र की नव उदारवादी नीतियों और चार लेबर कोड को मज़दूर विरोधी बताते हुए कहा कि ये सब केवल अडानी-अंबानी जैसे पूंजीपतियों के हित में हैं। एक वक्ता ने कहा:
“खेतीहर मज़दूर और शहरी मज़दूर दोनों का दुश्मन एक ही है – यह पूंजीवादी व्यवस्था जो मेहनत का सम्मान नहीं करती।”
छात्रों ने भी मज़दूरों का साथ देते हुए कहा कि कल को यही शोषण उनके हिस्से भी आएगा जब वे नौकरी में होंगे।
आम हड़ताल के मायने
यह हड़ताल सिर्फ ट्रेड यूनियनों की नहीं रही, बल्कि जनता की हड़ताल बन गई। कई राज्यों में इसका बंद के रूप में असर दिखा। लोगों का स्पष्ट संदेश था – यह देश अडानी-अंबानी का नहीं, मज़दूर-किसानों का है।
भले ही यह एक दिन की हड़ताल थी, लेकिन इसने 2025 के राजनीतिक माहौल में हलचल पैदा कर दी है। आने वाले दिनों में वोट बंदी और मज़दूर विरोधी नीतियों के खिलाफ संघर्ष और तेज़ होने की संभावना है।