July 10, 2025 7:44 am
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सेक्युलर-समाजवाद से RSS-BJP को क्यों है चिढ़!

बेबाक भाषा के ख़ास कार्यक्रम #DecodingRSS में प्रसिद्ध मानवाधिकार कार्यकर्त्ता प्रोफ़ेसर राम पुनियानी ने बात की RSS-BJP के संविधान की प्रस्तावना पर ताज़ा हमले की और बताया कि RSS-BJP शुरू से ही इसके ख़िलाफ़ क्यों रहे है.

संविधान की प्रस्तावना से इन दोनों शब्दों को हटाने की मांग के पीछे आरएसएस का असली एजेंडा क्या है?

भारत के संविधान की प्रस्तावना में ‘सेक्युलर’ (धर्मनिरपेक्षता) और ‘सोशलिस्ट’ (समाजवाद) शब्दों को लेकर एक बार फिर सियासी बयानबाजी तेज हो गई है। इस बार विवाद की शुरुआत की आरएसएस के बड़े नेता दत्तात्रेय होसबोले ने। उनका कहना है कि ये दोनों शब्द संविधान में मूल रूप से नहीं थे बल्कि आपातकाल के दौरान जबरन जोड़े गए। होसबोले ने कहा, “यह शब्द लोकतंत्र की आत्मा पर थोपे गए अल्सर की तरह हैं।”

इसी कड़ी में भारत के उपराष्ट्रपति ने भी इस बयान का समर्थन करते हुए कहा कि सेक्युलर और सोशलिस्ट शब्द हमारे संविधान में ‘कोड’ की तरह जोड़े गए हैं, जिनकी आवश्यकता नहीं थी। केंद्रीय मंत्री शिवराज सिंह चौहान ने भी इसी तर्ज पर बयान दिया।

यह मांग क्यों?

सवाल उठता है कि आखिर यह मांग अभी क्यों उठाई जा रही है, जबकि संविधान में ये शब्द दशकों से हैं और बीजेपी के अपने संविधान में भी इन शब्दों का उल्लेख है। दरअसल, संविधान में सेक्युलर और सोशलिस्ट शब्द न केवल प्रस्तावना में हैं बल्कि कई आर्टिकल्स में इनकी व्याख्या और गारंटी है। प्रस्तावना में इनका जोड़ना एक स्पष्ट संदेश था – भारत न साम्प्रदायिक राष्ट्र बनेगा और न पूंजीपतियों की सत्ता के हवाले होगा।

आपातकाल के दौर में जब साम्प्रदायिकता का उभार हो रहा था और समाजवाद कमजोर हो रहा था, तब इन्हें संविधान की आत्मा का हिस्सा बताते हुए जोड़ा गया। यह बाबा साहेब आंबेडकर के उस विजन का हिस्सा था जिसमें एक वोट, एक मूल्य और सबके लिए बराबरी का हक सुनिश्चित किया गया था।

आरएसएस और बीजेपी की असहजता

आरएसएस का संविधान से विरोध नया नहीं है। संविधान के प्रकाशन के समय ही उनके मुखपत्र ‘ऑर्गनाइज़र’ में इसकी निंदा की गई थी। उनका तर्क था कि यह संविधान भारतीय संस्कृति और मनुस्मृति के मूल्यों के अनुरूप नहीं है।

सावरकर भी मनुस्मृति को आधुनिक भारत का विधान बताते थे। संघ प्रमुख केएस सुधर्शन ने भी 2000 में यही बात दोहराई थी। अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार में वेंकटचलैया कमिशन बना, जिसका काम संविधान समीक्षा करना था। लेकिन जनता के दबाव के चलते सरकार उसे लागू नहीं कर सकी।

समाजवाद और धर्मनिरपेक्षता से परेशानी क्यों?

आरएसएस और बीजेपी के बड़े हिस्से को संविधान में निहित समानता, स्वतंत्रता, बंधुत्व और न्याय के मूल्यों से असहजता है। उनका राजनीतिक और वैचारिक एजेंडा मनुस्मृति आधारित सामाजिक व्यवस्था का है, जिसमें वर्ण व्यवस्था और सामंती ढांचा कायम रहे।

इसीलिए अनंत कुमार हेगड़े जैसे बीजेपी नेता कह चुके हैं कि संविधान बदला जाएगा। 2024 चुनावों में ‘400 पार’ का नारा भी इसी ओर इशारा करता है कि पूर्ण बहुमत के बाद संविधान संशोधन की राह आसान हो सके।

क्या कहता है सुप्रीम कोर्ट?

जब संविधान से ‘सेक्युलर’ और ‘सोशलिस्ट’ शब्द हटाने की मांग सुप्रीम कोर्ट में पहुंची, तब कोर्ट ने साफ कहा था कि ये शब्द संविधान की आत्मा के पूरक हैं और इन्हें हटाने का कोई औचित्य नहीं बनता।

निष्कर्ष

भारत का संविधान हर नागरिक को बराबरी का हक देता है – चाहे वह दलित हो, आदिवासी हो, अल्पसंख्यक हो या बहुसंख्यक। संविधान में छेड़छाड़ का प्रयास दरअसल लोकतंत्र की आत्मा पर हमला है। आज जरूरत है कि हम संविधान के इन मूल्यों को और मजबूत करें ताकि भारत में हर नागरिक सम्मान और हक के साथ जी सके।

राम पुनियानी

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