आरएसएस शताब्दी व्याख्यानमाला: विपक्षी नेताओं और विदेशी मिशनों को बुलाने की रणनीति क्या बताती है?
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS) अपने 100 वर्ष पूरे होने के उपलक्ष्य में अगस्त 26, 27 और 28 को दिल्ली में तीन दिवसीय व्याख्यानमाला आयोजित करने जा रहा है। इसके बाद मुंबई, बेंगलुरु और कोलकाता में भी इसी तरह के कार्यक्रम होंगे। इस व्याख्यान श्रृंखला का थीम है — “आरएसएस के 100 वर्ष और भविष्य की दिशा”।
2018 में विज्ञान भवन में मोहन भागवत द्वारा दी गई व्याख्यानमाला में मुख्य रूप से दक्षिणपंथी विचारकों और संघ परिवार से जुड़े लोग शामिल हुए थे। लेकिन इस बार तस्वीर बदली हुई है — आरएसएस न सिर्फ अपने विचारधारा से जुड़े लोगों को बल्कि लगभग 12 अलग-अलग श्रेणियों के प्रतिभागियों को बुला रहा है। इनमें कूटनीतिक मिशनों के प्रतिनिधि, विपक्षी दलों के नेता, और कुछ ऐसे बुद्धिजीवी शामिल हैं जो सीधे संघ से जुड़े नहीं हैं लेकिन हिंदू राष्ट्र की विचारधारा के प्रति सहानुभूति रखते हैं।
किसे बुलाया जा रहा है, किसे नहीं
- विदेशी मिशनों के प्रतिनिधि, लेकिन पाकिस्तान, बांग्लादेश और तुर्किये को निमंत्रण नहीं।
- विपक्षी दलों के ऐसे नेता, जो अपनी पार्टी में असंतुष्ट माने जाते हैं या वैचारिक रूप से डगमगाए हुए हैं।
- ऐसे बुद्धिजीवी और विचारक जो औपचारिक रूप से संघ से जुड़े नहीं हैं, लेकिन हिंदू राष्ट्र की वकालत करते हैं।
रणनीति के पीछे के संभावित कारण
- विचारधारा का विस्तार और शक्ति प्रदर्शन:
आरएसएस को लगता है कि वह अब इतनी सशक्त स्थिति में है कि अपने विरोधियों या तटस्थ व्यक्तियों को भी अपनी ओर आकर्षित कर सकती है। - विपक्ष में सेंधमारी:
बीजेपी द्वारा “ऑपरेशन कमल” के जरिए नेताओं को तोड़ने की जो राजनीतिक रणनीति अपनाई गई थी, अब संघ वैचारिक स्तर पर उसी को आज़माना चाहता है — पहले वैचारिक सहमति बनाना, फिर संगठन में जगह देना। - सत्ता समीकरण में हस्तक्षेप:
बीजेपी के भीतर नेतृत्व संबंधी असहमति और हालिया घटनाओं (जैसे जगदीप धनखड़ प्रकरण) के बाद संघ खुद को मजबूत और निर्णायक शक्ति के रूप में स्थापित करना चाहता है।
मीडिया और नेटवर्क पर पकड़
पिछले एक दशक में, खासकर मोदी सरकार के 11 वर्षों में, आरएसएस ने न सिर्फ प्रशासन, नौकरशाही, पुलिस और न्यायपालिका में अपने समर्थकों की संख्या बढ़ाई है, बल्कि मीडिया — प्रिंट, टीवी और सोशल मीडिया — पर भी मजबूत पकड़ बनाई है। “गोदी मीडिया” शब्द उसी बदलते मीडिया चरित्र को रेखांकित करता है, जो सत्ता की आलोचना के बजाय उसके प्रचार में व्यस्त है।
निष्कर्ष
आरएसएस की यह व्याख्यानमाला महज़ एक औपचारिक आयोजन नहीं, बल्कि एक राजनीतिक-सामाजिक रणनीति का हिस्सा है। इसका उद्देश्य सिर्फ शताब्दी उत्सव मनाना नहीं, बल्कि विचारधारा का दायरा बढ़ाना, राजनीतिक समीकरणों पर प्रभाव डालना और हिंदू राष्ट्र के एजेंडे को और बल देना है।