आरती साठे की नियुक्ति और मोदीकाल का ‘नया नॉर्मल’
मोदी सरकार में सब कुछ संभव है — अगर आप भारतीय जनता पार्टी (BJP) के प्रवक्ता हैं, तो आपके लिए हाई कोर्ट के जज की कुर्सी भी तैयार है।
आरती अरुण साठे की नियुक्ति ने इस कथित “नया नॉर्मल” पर मोहर लगा दी है।
🧑⚖️ आरती साठे कौन हैं?
- 2023 में बनीं भाजपा प्रवक्ता
- पार्टी की लीगल सेल की प्रमुख
- 2025 में सुप्रीम कोर्ट कोलेजियम द्वारा बॉम्बे हाई कोर्ट में एडिशनल जज नियुक्त
- बीजेपी और आरएसएस से पारिवारिक रिश्ता – उनके पिता भी 1989 में बीजेपी के टिकट पर चुनाव लड़ चुके हैं
राजनीति में सक्रियता छिपाई नहीं गई, बल्कि खुले तौर पर निभाई गई। यह कोई “न्यायिक निष्पक्षता” का मामला नहीं — ये तो खुला खेल फर्रूखाबादी है।
💥 विपक्ष का गुस्सा और जनता की चिंता
विपक्ष का सीधा आरोप:
“यह नियुक्ति न्यायपालिका में राजनीतिक दखल का उदाहरण है।”
एक तरफ देश की जनता को यह पढ़ाया जाता है कि न्यायपालिका स्वतंत्र और निष्पक्ष होती है। दूसरी तरफ, पार्टी प्रवक्ता को बिना पूरी न्यायिक प्रक्रिया की पारदर्शिता के जज बना दिया जाता है।
🔁 यह कोई पहली या आखिरी नियुक्ति नहीं!
आरती साथे अकेली नहीं हैं। याद कीजिए:
1. विक्टोरिया गौरी (जज, मद्रास हाई कोर्ट)
- पूर्व भाजपा नेता
- कई हेट स्पीच के आरोप
- उनकी नियुक्ति के वक्त मद्रास हाईकोर्ट के सीनियर वकीलों ने विरोध दर्ज किया था
2. अभिजीत गांगोपाध्याय
- कोलकाता हाईकोर्ट के जज थे
- ममता बनर्जी सरकार के खिलाफ तीखा रुख
- 5 जुलाई को इस्तीफा
- 7 जुलाई को भाजपा जॉइन
- अब संसद में भाजपा सांसद
यह सब संयोग नहीं, श्रृंखला है।
🛑 न्यायपालिका की साख पर सवाल
सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जज जस्टिस मदन लोकुर ने हाल में तीन गंभीर मुद्दे उठाए:
- न्यायपालिका में राजनीतिक हस्तक्षेप
- सरकार द्वारा जजों की नियुक्तियों में दखल
- पोस्ट-रिटायरमेंट पदों को लेकर न्यायधीशों की पक्षपाती प्रवृत्ति
उनका कहना था – “अब कोई ‘इंटरव्यू’ नहीं बचता, सबकुछ पहले से तय होता है।”
🙄 भक्तों का तर्क: “प्रवक्ता पद छोड़ा था न!”
भक्तगण यह कहते नहीं थकते कि आरती साथे ने 6 जनवरी 2024 को भाजपा प्रवक्ता पद से इस्तीफा दे दिया था, इसलिए कोई विवाद नहीं होना चाहिए।
लेकिन क्या इतना काफी है? क्या इतने भर से उनकी राजनीतिक निष्पक्षता स्थापित हो जाती है?
फॉर्मल इस्तीफा और वैचारिक निष्ठा — दोनों में जमीन-आसमान का फर्क होता है।
🔚 निष्कर्ष: “जज बनने के लिए अब मेरिट नहीं, पार्टी कार्ड चाहिए?”
यह नियुक्ति देश की न्यायपालिका को किस दिशा में ले जाएगी?
क्या अब जज बनने के लिए UPSC या कानून की डिग्री नहीं, बल्कि राजनीतिक चहेता होना ही काफी है?
अगर यह नया नॉर्मल है, तो यह लोकतंत्र के लिए बेहद असामान्य है।