राहुल गांधी पर सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी से उठे बड़े सवाल
क्या अब अदालतें तय करेंगी कि कौन देशभक्त है और कौन नहीं? सुप्रीम कोर्ट में राहुल गांधी के खिलाफ चल रहे मानहानि मामले की सुनवाई के दौरान जस्टिस दीपांकर दत्ता की एक टिप्पणी ने राजनीति और न्यायपालिका के बीच की रेखाओं को एक बार फिर धुंधला कर दिया है। उन्होंने कहा – “अगर आप बड़े भारतीय होते, तो आप ऐसा नहीं कहते।”
यह टिप्पणी सीधे तौर पर राहुल गांधी की उस बयानबाजी को लेकर थी जिसमें उन्होंने सोशल मीडिया पर चीन द्वारा भारतीय जमीन पर कब्जे का मुद्दा उठाया था। इस पर कांग्रेस की ओर से सीनियर वकील अभिषेक मनु सिंघवी कोर्ट में खड़े हुए और कहा कि नेता प्रतिपक्ष अगर देश की सुरक्षा से जुड़े सवाल न उठाए, तो फिर लोकतंत्र का क्या मतलब?
⚖️ देशभक्ति का पाठ अब अदालतें पढ़ाएंगी?
जस्टिस दत्ता की टिप्पणी के बाद कई मीडिया घरानों और सरकार समर्थक सोशल मीडिया ग्रुप्स ने इसे हथियार बना लिया। ‘व्हाट्सएप यूनिवर्सिटी’ से लेकर टीवी स्टूडियो तक यही गूंजने लगा – “देखिए, अब तो सुप्रीम कोर्ट भी कह रहा है कि राहुल गांधी देशभक्त नहीं हैं!”
सवाल यह है कि क्या सुप्रीम कोर्ट की यह टिप्पणी किसी फैक्ट पर आधारित थी या यह सिर्फ एक नैतिक जजमेंट था? और अगर यह केवल एक टिप्पणी थी, तो क्या उसे ‘देशभक्ति का प्रमाणपत्र’ समझ लिया जाना चाहिए?
📌 राहुल गांधी के सवाल और चीन की सच्चाई
यह पूरा मामला राहुल गांधी के उस अभियान से जुड़ा है जिसमें वे लगातार संसद के भीतर और बाहर चीन की घुसपैठ पर सवाल उठाते रहे हैं। चाहे गलवान की झड़प हो, लद्दाख में चीन का निर्माण कार्य हो, या फिर सीमा क्षेत्रों में भारतीय सेना की स्थिति — राहुल गांधी ने इन सभी मुद्दों पर मोदी सरकार की चुप्पी पर सवाल खड़े किए।
और यह सिर्फ राहुल गांधी नहीं कर रहे थे। प्रसिद्ध पर्यावरण कार्यकर्ता सोनम वांगचुक भी लद्दाख में चीनी हस्तक्षेप के खिलाफ ‘क्लाइमेट फास्ट’ कर चुके हैं। उन्होंने साफ कहा था कि चीन की वजह से स्थानीय लोग अपने पारंपरिक चरागाहों में नहीं जा पा रहे हैं।
🎙️ बीजेपी सांसद भी कह चुके हैं यही बात
बात यहीं खत्म नहीं होती। 2019 में अरुणाचल प्रदेश से बीजेपी सांसद तपिर गाओ ने संसद में कहा था कि अगर दूसरा डोकलाम हुआ, तो वह अरुणाचल प्रदेश में होगा — क्योंकि चीन ने यहां की जमीन पर 30 से 60 किलोमीटर तक कब्जा कर रखा है। यह वही बात है जो राहुल गांधी भारत जोड़ो यात्रा के दौरान कहते रहे हैं।
तो फिर सवाल यह है कि जब वही मुद्दा एक सत्तारूढ़ पार्टी का सांसद उठाता है, तो वह “राष्ट्रभक्त” होता है, लेकिन वही बात विपक्ष का नेता उठाए तो वह “देशभक्ति की कसौटी पर खरा” नहीं उतरता?
🧭 देशभक्ति: नई व्याख्या या राजनीतिक हथियार?
हाल ही में बॉम्बे हाईकोर्ट ने गाजा में भूख से मरते बच्चों के समर्थन में हो रहे प्रदर्शनों पर टिप्पणी की थी कि – “देशभक्त बनो, गाजा नहीं, भारत की नालियों की चिंता करो।” अब सुप्रीम कोर्ट में भी यह विमर्श घुस आया है कि देशभक्ति का सही मंच क्या है? क्या सोशल मीडिया पर सवाल उठाना गलत है, जबकि वही सवाल संसद में पूछा जाए तो ठीक?
यह विचारणीय है कि क्या अदालतें अब यह तय करेंगी कि नेता कब, कहां और किस मंच से देश की सुरक्षा पर सवाल उठा सकता है? और अगर यह तय अदालतें करेंगी, तो फिर जनप्रतिनिधि और लोकतंत्र की भूमिका क्या रह जाएगी?
🔎 डिफेमेशन केस या लोकतंत्र की दिशा?
राहुल गांधी के खिलाफ यह मानहानि मामला भी गहराई से राजनीतिक रंग लिए हुए है। भारत जोड़ो यात्रा के दौरान उठाए गए सवालों पर उन्हें कोर्ट में घसीटा गया। कोर्ट में उनके वकील ने कहा – “क्या विपक्ष के नेता को जनता से जुड़े, देश की सीमाओं से जुड़े मुद्दे उठाने का हक नहीं है?”
अब सवाल यह नहीं है कि राहुल गांधी ने क्या कहा। सवाल यह है कि क्या अब देशभक्ति के प्रमाणपत्र सोशल मीडिया नहीं, बल्कि अदालतें बांटेंगी? और क्या लोकतांत्रिक विमर्श की सीमाएं भी अब कोर्ट तय करेगा?