मरा हुआ जिंदा, जिंदा हुआ ग़ायब: बिहार की वोटर लिस्ट में चुनाव आयोग बना माई-बाप
बिहार में चुनाव आयोग इस समय न सिर्फ़ मतदाता पहचान पत्र बना रहा है, बल्कि माई, बाप, पति, पत्नी और यहां तक कि “हस्बैंड हस्बैंड” भी बनता जा रहा है। हाल ही में प्रकाशित हुई ड्राफ्ट वोटर लिस्ट बिहार में लोकतंत्र के नाम पर एक अद्भुत मज़ाक बन गई है — ऐसा मज़ाक जो न केवल लोकतंत्र की नींव को हिला रहा है, बल्कि सत्ता की राजनीति में एक सुनियोजित साजिश की बू भी दे रहा है।
वोटर लिस्ट या हास्य संग्रह?
नेहा कुमारी, पुत्री: Election Commission of India
मधु कुमारी, पति: Husband Husband
दिव्या राज, पिता: Father Father
बच्चा वंश रोपन कुमार जिसकी उम्र बताई गई 54 वर्ष!
ये सब महज़ टाइपो नहीं हैं। ये उस गड़बड़-घोटाले के उदाहरण हैं जो आज बिहार की वोटर लिस्ट का चेहरा बन चुका है। और इससे भी ज़्यादा शर्मनाक यह है कि इतने स्पष्ट और प्रमाणित उदाहरणों के बावजूद भारत का चुनाव आयोग चुप है — पूरी तरह से चुप।
“चावल का एक दाना” और लोकतंत्र
अगर एक दाना चावल न पका हो, तो पूरा भात कच्चा होता है। बिहार की वोटर लिस्ट में एक नहीं, सैकड़ों दाने सड़े हुए हैं। जब एक ही मकान में तीस लोगों के वोटर कार्ड बनते हैं — उसमें यादव, तिवारी, अंसारी, पासवान, मुस्तफा सब एक साथ रहते हैं — तब समझिए कि यह महज़ चूक नहीं, एक संगठित हेराफेरी है।
मरे हुए जिंदा, जिंदा हुए ग़ायब
राजसमंद से लेकर पटना तक, जिन लोगों की मौत सरकारी रिकॉर्ड में दर्ज है, उनके नाम पर वोटर आईडी बना दिए गए हैं। दूसरी तरफ़, जीवित और सक्रिय नागरिकों के नाम गायब हैं। आरजेडी नेता तेजस्वी यादव तक को अपना नाम ढूंढने में मुश्किल हो रही है। IAS अफ़सरों, शिक्षकों, सेवानिवृत्त कर्मियों के नाम भी लिस्ट से नदारद हैं।
66 लाख नाम कटे और तमिलनाडु में नाम जुड़े?
जनवरी से जुलाई 2025 के बीच बिहार की वोटर लिस्ट से 66 लाख से अधिक नाम काटे गए। वहीं चुनाव आयोग तमिलनाडु में प्रवासी मजदूरों को नए वोटर बना रहा है। क्या यह महज प्रशासनिक प्रक्रिया है या बिहार की वोट कटिंग और तमिलनाडु में वोट जोड़ने के पीछे कोई गहरी राजनीतिक रणनीति है?
फॉर्म बिखरे, FIR दर्ज, पत्रकार प्रताड़ित
बेगूसराय में पत्रकार अजीत अंजुम ने जब वोटर डाटा फार्म के गबन की कहानी सामने रखी, तो उनके ख़िलाफ़ एफआईआर दर्ज कर दी गई। चुनाव आयोग पर सवाल उठाने वालों को अपराधी बना देना कोई नया चलन नहीं, लेकिन यह दर्शाता है कि सच्चाई कितनी असहज है।
‘बूथ चलो अभियान’ और नागरिक चेतना
बिहार में अब जनता सड़क पर है। ‘बूथ चलो अभियान’ चलाया जा रहा है ताकि फर्जी नामों को हटाया जाए और असली मतदाताओं को उनका अधिकार वापस मिले। युवाओं, महिलाओं, प्रवासियों के वोट काटे जा रहे हैं, और बदले में “हस्बैंड हस्बैंड” और “डॉग बाबू” जैसे पात्र वोट डालेंगे?
निष्कर्ष: लोकतंत्र की हत्या की ओर?
जिस स्पेशल इंटेंसिव रिविजन (SIR) की प्रक्रिया को चुनाव आयोग ने पारदर्शी बताया, वो दरअसल 2024-25 के लोकसभा और विधानसभा चुनावों के लिए एक राजनीतिक हथियार बन गई है। राहुल गांधी से लेकर विपक्ष के हर नेता ने इस पर सवाल उठाए हैं, लेकिन अब जनता खुद बोल रही है: “चुनाव आयोग, जवाब दो।”