बांग्लादेशी नहीं, बल्कि असम के लोगों के खिलाफ़ ही अभियान छेड़े हुए हैं हेमंत बिस्वा सरमा
“हम मणिपुर की बात करते हैं, गाज़ा की बात करते हैं, लेकिन अपने ही देश के असम में जो हो रहा है, उसकी कोई चर्चा नहीं करता।” — यह कहना है दाहर उद्दीन खान का, जो असम के करीमगंज से हैं और MSF के नेशनल सेक्रेटरी हैं।
आज असम में जो राजनीति चल रही है, वह सिर्फ वोट बैंक बनाने की कवायद नहीं है, बल्कि एक समुदाय विशेष — मुसलमानों — को टार्गेट कर सत्ता को मजबूत करने की रणनीति है। इस रिपोर्ट में हम आपको दिखाएंगे कि कैसे असम के मुख्यमंत्री हेमंत बिस्वा शर्मा का ‘बुलडोज़र मॉडल’ उत्तर प्रदेश से आगे निकल चुका है — और किस तरह यह मॉडल लोकतंत्र और संविधान के मूल्यों को रौंद रहा है।
कौन हैं इस राजनीति के निशाने पर?
बेबाक भाषा की इस विशेष वीडियो चर्चा में शामिल हुए:
- इलियास अहमद – गुवाहाटी हाईकोर्ट में वकील
- मुहम्मद तौसीफ हुसैन रज़ा – गुवाहाटी निवासी और राजनीतिक कार्यकर्ता
- दाहर उद्दीन खान – करीमगंज से छात्र नेता और MSF के राष्ट्रीय सचिव
तीनों ने इस बात पर जोर दिया कि आज असम में मुस्लिम समुदाय को न केवल हाशिए पर धकेला जा रहा है, बल्कि उन्हें “अवैध कब्जेदार”, “अतिक्रमणकारी” और “घुसपैठिया” बताकर जबरन घरों से बेदखल किया जा रहा है।
बुलडोज़र क्यों और किसके लिए?
तौसीफ रज़ा ने बताया, “हेमंत बिस्वा शर्मा का असली मकसद है समाज को ध्रुवीकृत करना (polarize करना)। वे बहुसंख्यक समुदाय को यह संदेश देना चाहते हैं कि उनकी सरकार मुसलमानों के खिलाफ सख्त है। बुलडोज़र उसी राजनीति का प्रतीक बन गया है।”
वकील इलियास अहमद का कहना है कि यह सब एक सुव्यवस्थित एजेंडे का हिस्सा है — सरकार यह दिखाना चाहती है कि मुस्लिम समुदाय असम की भूमि पर ‘अवैध’ है, और यही कथा उनके खिलाफ हिंसा और बेदखली को जायज़ बनाती है।
“असम को बेचो” मॉडल?
दाहर उद्दीन खान ने एक बड़ा आरोप लगाया — “हेमंत बिस्वा शर्मा सरकार असम को उद्योगपतियों को बेच रही है। पहले ज़मीनें रामदेव को दी गईं, अब अडानी-अंबानी को। जब ज़मीनें नहीं बचीं तो अब लोगों के घर तोड़े जा रहे हैं।”
उनका मानना है कि ये घर केवल “अतिक्रमण” के नाम पर नहीं तोड़े जा रहे, बल्कि मुस्लिम पहचान, गरीबी, और राजनीतिक विरोध को कुचलने के लिए तोड़े जा रहे हैं।
क्यों खामोश है विपक्ष?
जब राहुल गांधी असम पहुंचे और हेमंत बिस्वा शर्मा को जेल भेजने की बात कही, तो जनता को उम्मीद जगी कि शायद कोई राष्ट्रीय नेता असम की ज़मीन पर सच बोलेगा। लेकिन ज़मीनी सच्चाई यही है कि इस तरह के बुलडोज़र अभियान की कोई ठोस जांच नहीं हो रही, न ही पीड़ितों को कोई मुआवजा या पुनर्वास मिल रहा है।
क्या है समाधान?
वक्ताओं का एक सुर में कहना है — “हम चुप नहीं बैठेंगे।” असम का युवा जाग चुका है। लोग समझ गए हैं कि ये सत्ता टिकाऊ नहीं, बल्कि भय पर आधारित है। लोगों का भरोसा टूट चुका है, और अब ज़रूरत है कि पूरे देश में असम की इस वास्तविकता को सामने लाया जाए।
निष्कर्ष:
हेमंत बिस्वा शर्मा की राजनीति में अब शासन का मतलब है बुलडोज़र, टारगेटिंग और ध्रुवीकरण। लेकिन इसका जवाब असम की ज़मीन से उठ रहा है। जब छात्र, वकील और नागरिक एक सुर में सरकार की नीतियों पर सवाल उठाते हैं, तब लोकतंत्र जीवित होता है।