पिछले 10–12 सालों में संविधान को कमजोर करने की कोशिशें बढ़ी हैं : हीरालाल राजस्थानी
बेबाक भाषा के दलित डिस्कोर्स में आज हम आपको मिलवा रहे हैं हीरालाल राजस्थानी से — जो मूर्तिकार, शिल्पकार, साहित्यकार और दलित लेखक संघ के अध्यक्ष हैं। एक ऐसे शख़्स, जिन्होंने अपनी कला और लेखन से न केवल दलित विमर्श को नई ऊँचाई दी, बल्कि संगठनात्मक स्तर पर भी मजबूत भूमिका निभाई।
दलित लेखक संघ से जुड़ाव और अध्यक्ष पद तक का सफ़र
हीरालाल राजस्थानी बताते हैं कि दलित लेखक संघ की स्थापना 15 अगस्त 1997 को हुई।
“उस समय एक मंच की आवश्यकता महसूस हुई, जहां हम अपनी पीड़ा, जीवनशैली और उत्पीड़न की कहानी अपने दृष्टिकोण से कह सकें। पहले वामपंथी संगठनों में हम शामिल थे, लेकिन वहाँ हमारी बात वैसी नहीं हो पाती थी जैसी ज़रूरी थी,” वे कहते हैं।
राजस्थान से दिल्ली आए हीरालाल 1998 में संघ से जुड़े। रजनी तिलक जी के निमंत्रण पर वे संगठन में सक्रिय हुए। शुरुआत छोटी घरेलू बैठकों से हुई, लेकिन धीरे-धीरे उन्होंने आंदोलन की दिशा को समझा और नेतृत्व संभाल लिया।
दलित लेखक संघ का उद्देश्य
हीरालाल स्पष्ट करते हैं —
“हमारा मकसद सिर्फ साहित्य का प्रचार नहीं, बल्कि नई पीढ़ी को आंदोलन से जोड़ना भी है। साथ ही, दूसरे लेखक संगठनों से तालमेल बनाकर दलित और उपेक्षित वर्ग के मुद्दों को साझा करना।”
वे बताते हैं कि 2015 के बाद यह तालमेल और मजबूत हुआ और अब विभिन्न संगठन मिलकर बाबा साहेब अंबेडकर जयंती जैसे बड़े कार्यक्रम आयोजित करते हैं।
‘प्रतिबद्ध’ पत्रिका और साहित्यिक योगदान
दलित लेखक संघ की पत्रिका ‘प्रतिबद्ध’ विशेषांकों के ज़रिए विभिन्न विषयों पर केंद्रित रहती है। हालिया अंक ‘भक्ति काल’ पर आधारित था, जिसमें निर्गुण और सगुण धाराओं का पुनर्पाठ किया गया।
हीरालाल मानते हैं कि दलित साहित्य में भोगे हुए यथार्थ के साथ देखा हुआ यथार्थ भी जरूरी है, क्योंकि न्याय तभी संभव है जब प्रत्यक्ष गवाह और अनुभव, दोनों दर्ज हों।
वर्तमान सामाजिक-राजनीतिक परिप्रेक्ष्य
हीरालाल का मानना है कि पिछले 10–12 सालों में संविधान को कमजोर करने की कोशिशें बढ़ी हैं।
“हाथरस जैसी घटनाओं में देखा गया कि न्याय और मानवीय संवेदनाओं को दरकिनार किया जा रहा है। दलित समुदाय को इन बारीकियों को समझना होगा।”
वे यह भी कहते हैं कि राहुल गांधी जिस तरह से संसद और जनता के बीच बिना लाग-लपेट के मुद्दे उठाते हैं, वैसा साहस दलित राजनेताओं को भी दिखाना चाहिए।
मूर्तिकला की दुनिया में प्रवेश
दिल्ली विश्वविद्यालय में पॉलिटिकल साइंस पढ़ते समय, उनके एक कला अध्यापक ने उनकी कला प्रतिभा को पहचाना और उन्हें जामिया मिलिया इस्लामिया के फाइन आर्ट्स विभाग में भेजा।
शुरुआत में वे पेंटिंग करना चाहते थे, लेकिन प्रोफेसरों ने उन्हें मूर्तिकला की ओर मोड़ दिया। अनमने मन से शुरू हुई यह यात्रा धीरे-धीरे उनकी पहचान बन गई।
उन्होंने कई चर्चित मूर्तियां और पोट्रेट बनाए — जैसे सिंबल ऑफ कनॉट प्लेस और डॉ. भीमराव अंबेडकर की मूर्तियां, जिन्हें व्यापक सराहना मिली।
राष्ट्रीय स्तर पर उन्हें ललित कला अकादमी, जयपुर से नेशनल अवार्ड मिला और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी पहचान मिली।
लेखन और काव्य संग्रह
हीरालाल के प्रमुख काव्य संग्रह:
- साधु नहीं (कविता संग्रह)
- औरतें अब प्रेम नहीं करतीं (2023)
उन्होंने आगाज़, तीन पीढ़ियां : एक संवाद जैसे संकलन भी संपादित किए।
उनकी कविताओं में दलित और स्त्री विमर्श का गहरा प्रभाव है।
दलित और स्त्री विमर्श
हीरालाल मानते हैं कि दलित विमर्श और स्त्री विमर्श दोनों को साथ लेकर चलना जरूरी है।
“सबसे अधिक उपेक्षित दलित महिलाएं हैं। हमने आठवीं पास और 45 साल की महिलाओं तक को लिखने के लिए प्रेरित किया है, उनकी कविताएं संकलनों में शामिल की हैं।”
वे रजनी तिलक को याद करते हैं, जिन्होंने इस दृष्टिकोण पर जोर दिया कि स्त्रियों की आवाज़ को मंच पर बराबरी से जगह मिले।
भविष्य की योजनाएं
वर्तमान में हीरालाल एक कहानी और कई कविताओं पर काम कर रहे हैं। साथ ही, वे मुसलमानों के खिलाफ हो रहे भेदभाव और उसे दलित उत्पीड़न के ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य से जोड़ने वाले प्रोजेक्ट पर भी काम कर रहे हैं।
निष्कर्ष
हीरालाल राजस्थानी का जीवन इस बात का उदाहरण है कि कला, साहित्य और संगठनात्मक संघर्ष को एक साथ लेकर भी समाज में बदलाव की ठोस राह बनाई जा सकती है। वे न केवल एक सफल मूर्तिकार और कवि हैं, बल्कि दलित आंदोलन की वैचारिक और रचनात्मक ताकत भी हैं।