July 16, 2025 2:52 pm
Home » हाशिये की आवाज़ » टीचर बन कर क्या करोगी मैडम, आप तो दलित हैं!

टीचर बन कर क्या करोगी मैडम, आप तो दलित हैं!

जानिए दिल्ली यूनिवर्सिटी की एसोसिएट प्रोफेसर डॉ. सीमा माथुर का संघर्षमयी सफर, अंबेडकरवाद से उनका जुड़ाव, दलित जीवन व साहित्य पर उनके विचार और उनकी कविताएं।

पितृसत्ता और जातिवाद के कारण दलित महिलाएं दोहरे, तिहरे शोषण का शिकारः सीमा माथुर

बेबाक भाषा के ‘दलित डिस्कोर्स’ में आज हमारे साथ मौजूद हैं डॉ. सीमा माथुर, जो दिल्ली विश्वविद्यालय के कालिंदी कॉलेज में एसोसिएट प्रोफेसर हैं। वे सामाजिक कार्यकर्ता, लेखिका, कवियित्री और अंबेडकरवादी चिंतक हैं। उनका जीवन-संघर्ष और विचारधारा नई पीढ़ी को दिशा दिखाने वाला है।

पारिवारिक पृष्ठभूमि और प्रारंभिक शिक्षा

सीमा जी उत्तर प्रदेश के एटा जिले के छोटे से गांव जीसकपुर से आती हैं। उनका बचपन बेहद साधारण परिस्थितियों में बीता। उन्होंने बताया –

“हमारे यहां शिक्षा का वातावरण नहीं था। दादा-दादी और मां बिल्कुल पढ़े-लिखे नहीं थे। पिता नौकरी करते थे। गांव के प्राइमरी स्कूल में बोरी के जोले में पट्टी, दवात और सेंटा की कलम लेकर जाती थी। इंग्लिश मीडियम का नामोनिशान तक नहीं था।”

उन्होंने पांचवी कक्षा तक गांव के स्कूल में पढ़ाई की और फिर सरकारी स्कूलों से आगे की पढ़ाई की। आर्थिक स्थिति ऐसी थी कि पढ़ाई के लिए स्कॉलरशिप, फेलोशिप का सहारा लिया। लेकिन उनका जज़्बा था – “पढ़ना है तो पढ़ना है।”

उच्च शिक्षा और शिक्षण में प्रवेश

सीमा जी ने ग्रेजुएशन के बाद बीएड करने का सपना देखा। उन्होंने बताया –

“मुझे B.Ed में एडमिशन के लिए तीन साल लगे। पहले साल नहीं हुआ, फिर MA में दाखिला ले लिया। दूसरे साल फिर B.Ed के लिए एंट्रेंस दिया लेकिन तब भी नहीं हुआ। तीसरे साल MA फाइनल के दौरान तीसरी कोशिश में B.Ed हो पाया। यह संघर्ष मेरे लिए बड़ा था।”

इसके बाद उन्होंने M.Phil और PhD की और शिक्षण में कदम रखा। उनका मानना है कि शिक्षा ही दलित समाज की सबसे बड़ी ताकत है।

NCDHR और दलित महिला अधिकार मंच से जुड़ाव

सीमा जी ने बताया कि नेशनल कैंपेन ऑन दलित ह्यूमन राइट्स (NCDHR) और ऑल इंडिया दलित महिला अधिकार मंच (AIDMAM) से जुड़ाव ने उनके व्यक्तित्व को नया आयाम दिया। वहाँ काम करते हुए विमल थोराट, पॉल दिवाकर, विंसेंट मनोहरन और विल्सन बीजवाड़ा जैसे नेतृत्व से सीखने को मिला। इसी से उनके भीतर नेतृत्व की क्षमता विकसित हुई।

दलित महिलाएं, जाति व्यवस्था और अंबेडकरवाद

सीमा जी मानती हैं कि अंबेडकरवाद से जुड़ने के बाद दलित महिलाओं के जीवन में बदलाव आता है। वे कहती हैं –

“बाबा साहब ने अकेले समाज की पीड़ा को समझा। उनका बनाया संविधान ही हमें बराबरी और अधिकार देता है। वरना मनुवादी कानून हमें इंसान नहीं मानते थे।”

उन्होंने बताया कि संविधान लागू होने के बाद मनुस्मृति के सारे नियम खत्म हो गए। पर आज भी पितृसत्ता और जातिवाद के कारण दलित महिलाएं दोहरी, तिहरी शोषण का शिकार हैं।

हिंदू राष्ट्र, धर्म और सेक्युलरिज्म

हाल की घटनाओं पर बोलते हुए सीमा जी ने कहा –

“ओडिशा में हाल ही में एक दलित पिता को बेटी की शादी में गाय देने के लिए मजबूर किया गया। न देने पर परिवार को गंदा पानी पिलाया गया। ये धर्म नहीं, अत्याचार है।”

उन्होंने RSS नेता दत्तात्रेय होसबोले और उपराष्ट्रपति के बयान पर भी चिंता जताई, जिसमें सेक्युलरिज्म और समाजवाद शब्द को संविधान से हटाने की बात कही गई। सीमा जी ने पूछा –

“Article 17 (अस्पृश्यता उन्मूलन) तो अभी तक लागू है, उसे क्यों नहीं हटाते? क्योंकि समाज से untouchability खत्म नहीं हुई है। संविधान संशोधन के नाम पर ये लोग मनुवादी व्यवस्था को फिर स्थापित करना चाहते हैं।”

दलित साहित्य की भूमिका

सीमा जी न केवल प्रोफेसर हैं बल्कि दलित लेखन की भी मजबूत आवाज हैं। उनका मानना है कि दलित साहित्य (अब बहुजन साहित्य) समाज की मानसिकता बदलने का माध्यम है। वे कहती हैं –

“हमारे अनुभव हमारे साहित्य में हैं। जैसे कंबल भारती, ओमप्रकाश वाल्मीकि, तुलसीराम, सुशीला टाकभोरे। बहुजन साहित्य समाज को आइना दिखाता है।”

उन्होंने दलित लिटरेचर फेस्ट का ज़िक्र किया, जो हर साल नई पीढ़ी के लेखकों को मंच देता है।

कविताएं: विद्रोह और संवेदना की आवाज

सीमा जी की किताब ‘जंग जारी है’ उनकी कविताओं का संकलन है। उनकी कविताओं में विद्रोह और संवेदना दोनों हैं। उनकी कविता ‘आंख की किरकिरी’ में वे लिखती हैं:

आंख की किरकिरी बन जाती हैं वे लड़कियां
जो कर देती हैं खिलाफत तुम्हारी
आधिकारिक सत्ता की बगावत
…”

और हाथरस कांड पर उनकी कविता ‘हैवानियत’ समाज की क्रूरता को उजागर करती है।

अंतिम संदेश

सीमा जी का मानना है –

“अब चुप नहीं बैठना है। बोलना है। बाबा साहब का संविधान हमें यही सिखाता है – Educate, Agitate, Organize.

राज वाल्मीकि

View all posts

ताजा खबर