सिस्टम खुद अपनी हार का जश्न मना रहा है
2008 के मालेगांव ब्लास्ट केस में NIA कोर्ट के हालिया फैसले ने एक बार फिर यह सवाल खड़ा कर दिया है—क्या भारत में न्याय अब राजनीतिक विचारधाराओं के अधीन हो चुका है? क्या यह भगवा की जीत है, या उस बहादुर जांच अधिकारी हेमंत करकरे की हार जिसने इस मामले की नींव रखी थी?
NIA कोर्ट का फैसला और भगवा विजय का उद्घोष
29 जुलाई 2025 को मुंबई की NIA अदालत ने मालेगांव विस्फोट मामले में सभी सात आरोपियों को बरी कर दिया। जिन नामों को पहले आतंकवाद से जोड़ा गया था—सांसद प्रज्ञा ठाकुर, लेफ्टिनेंट कर्नल प्रसाद पुरोहित, मेजर रमेश उपाध्याय सहित अन्य—उन्हें अब ‘निर्दोष’ घोषित कर दिया गया।
लेकिन फैसला आते ही एक खास नैरेटिव की शुरुआत हुई। प्रज्ञा ठाकुर ने इसे “भगवा की, भगवान की और हिंदुत्व की जीत” करार दिया। सोशल मीडिया पर भक्तों ने इस फैसले को हिंदू विजय के प्रतीक के रूप में प्रचारित किया और हेमंत करकरे तक को गाली देने से परहेज नहीं किया।
हेमंत करकरे की विरासत और उसे मिटाने की कोशिश
इस केस की जांच की शुरुआत महाराष्ट्र ATS के प्रमुख हेमंत करकरे ने की थी। अक्टूबर 2008 में विस्फोट के बाद उन्होंने सबसे पहली अहम कड़ी खोज निकाली—प्रज्ञा ठाकुर की मोटरसाइकिल। यहीं से अभिनव भारत और हिंदू राष्ट्र की विचारधारा से जुड़े नामों की परतें खुलीं।
हेमंत करकरे की उसी साल 26/11 हमले में मौत हो गई। आज उन्हें न केवल भूलाया जा रहा है, बल्कि कुछ लोग सोशल मीडिया पर उनकी मौत को “श्राप का फल” बता रहे हैं।
2014 के बाद जांच की दिशा क्यों बदली?
NIA ने शुरुआती जांच में ATS की दिशा को ही अपनाया था, लेकिन 2014 में मोदी सरकार आने के बाद तस्वीर पूरी तरह बदल गई। 2015 में तत्कालीन सरकारी वकील रोहिणी सालियान ने सार्वजनिक रूप से कहा कि उन पर “नरम पड़ने” का दबाव बनाया गया।
बाद में NIA ने UAPA और MCOCA जैसे कठोर कानूनों को केस से हटा दिया। दर्जनों गवाह पलटे, कुछ गायब हुए, और बाकी को पेश ही नहीं किया गया। NIA ने खुद अपनी ही पिछली जांच को खारिज कर दिया।
राजनीति और जांच एजेंसियों की नई जुगलबंदी
यह एक असाधारण मिसाल है जहां एक ही जांच एजेंसी, NIA, दो अलग-अलग राजनीतिक शासनकालों में दो विपरीत निष्कर्षों पर पहुंचती है। यह सिर्फ तकनीकी मामला नहीं, बल्कि भारत की लोकतांत्रिक संस्थाओं की विश्वसनीयता पर बड़ा सवाल है।
जैसा कि रोहिणी सालियान ने कहा, “मैं न तो इस फैसले से निराश हूं और न ही आश्चर्यचकित, क्योंकि अब यह न्यू इंडिया का न्यू नॉर्मल बन गया है।”
हिंदुत्व की जीत या न्याय की हार?
इस फैसले को महज कानूनी मुद्दा कह देना आसान होगा, लेकिन इसका असल असर कहीं ज्यादा गहरा है। यह उस पूरे विमर्श को खारिज करता है जिसमें हिंदू चरमपंथ की भी जांच की जरूरत मानी जाती थी। आज जब केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह सदन में खड़े होकर कहते हैं कि “कोई हिंदू आतंकवादी नहीं हो सकता”, तब यह स्पष्ट होता है कि फैसला महज़ अदालत से नहीं, सत्ता के गलियारों से भी प्रभावित है।
निष्कर्ष
मालेगांव केस का यह फैसला सिर्फ एक अदालती आदेश नहीं, एक चेतावनी है—कि यदि विचारधारा को न्याय से ऊपर रखा गया, तो लोकतंत्र और संविधान दोनों की नींव हिल सकती है। और अगर सच बोलने वाली एक महिला वकील (जैसे रोहिणी सालेन) को भी खामोश कर दिया गया, तो हमारे सवालों की आवाजें कब तक बचेंगी?