अमित शाह ने एक ही दिन पहले कह दिया था, कोई हिंदू आतंकी नहीं हो सकता
31 जुलाई 2025 को मालेगांव बम ब्लास्ट मामले में सभी सात आरोपी—जिनमें साध्वी प्रज्ञा ठाकुर, कर्नल पुरोहित और मेजर रमेश उपाध्याय शामिल हैं—को NIA कोर्ट ने बरी कर दिया। ठीक एक दिन पहले, 30 जुलाई को देश के गृहमंत्री अमित शाह ने राज्यसभा में खड़े होकर यह बयान दिया कि “मुझे गर्व है कि कोई हिंदू आतंकवादी नहीं हो सकता।” क्या ये सिर्फ एक इत्तेफाक है? या यह सत्ता और न्यायपालिका के बीच गहराते तालमेल का संकेत है?
मालेगांव ब्लास्ट: केस का संक्षिप्त इतिहास
29 सितंबर 2008 को मालेगांव में एक मस्जिद के पास खड़ी मोटरसाइकिल में RDX से विस्फोट हुआ था। इस विस्फोट में छह लोग मारे गए थे, जिनमें 10 साल की बच्ची फरहीन और 70 वर्षीय बुज़ुर्ग हारून शाह शामिल थे। आरोपितों में शामिल थे भारतीय सेना के अधिकारी और साध्वी प्रज्ञा ठाकुर, जो बाद में बीजेपी सांसद बनीं।
शुरू में महाराष्ट्र ATS ने इस केस की जांच की थी। लेकिन 2011 में यह मामला NIA को सौंप दिया गया। 2016 में NIA ने सप्लीमेंट्री चार्जशीट में कहा कि पूर्व जांच एजेंसी ATS ने गलत तरीके से सबूत जुटाए और आरोपितों को फंसाया। इसी के साथ NIA ने प्रज्ञा ठाकुर और अन्य को क्लीन चिट दे दी।
गृहमंत्री का बयान और क्रोनोलॉजी की राजनीति
गृहमंत्री अमित शाह का यह कहना कि “कोई हिंदू आतंकवादी हो ही नहीं सकता”, भारतीय संविधान की धर्मनिरपेक्ष आत्मा पर आघात है। यह विचारधारा वही है जिसे RSS और बीजेपी लंबे समय से प्रचारित करते आए हैं — कि आतंकवाद का सीधा संबंध केवल मुस्लिम पहचान से है।
ठीक इसके अगले दिन, अदालत से मालेगांव केस में सभी आरोपी बरी हो जाते हैं। यह क्रोनोलॉजी अपने-आप में सत्ता और न्याय के गठजोड़ की बानगी पेश करती है।
प्रॉसिक्यूशन का रवैया और रोहिणी सालियान की गवाही
2015 में इस केस की सरकारी वकील रोहिणी सालियान ने सार्वजनिक रूप से यह आरोप लगाया था कि NIA ने उन पर दबाव डाला कि वे आरोपितों के प्रति नरम रवैया अपनाएं। क्या यह न्याय व्यवस्था में राजनीतिक हस्तक्षेप का उदाहरण नहीं है?
सालियान की यह साहसिक गवाही हमारे सिस्टम में उस दरार को उजागर करती है जहाँ जांच एजेंसियाँ सत्ता के इशारे पर काम करने लगती हैं।
हेमंत करकरे और हिंदुत्व की सियासत
मालेगांव केस की शुरुआती जांच ATS प्रमुख हेमंत करकरे ने की थी। उनके द्वारा साध्वी प्रज्ञा, कर्नल पुरोहित सहित कई लोगों के खिलाफ पुख्ता साक्ष्य जुटाए गए थे। करकरे ने तहलका पत्रकार राणा अय्यूब को इंटरव्यू में बताया था कि किस तरह इन लोगों के संगठन और विचारधारा एक हिंसक हिंदू चरमपंथ का पोषण कर रहे थे।
लेकिन करकरे की शहादत के बाद उन्हीं आरोपियों में शामिल प्रज्ञा ठाकुर ने संसद में यह बयान दिया कि “हेमंत करकरे को मेरी बद्दुआ लगी थी, इसलिए वह मरा।” और वह अब संसद में सम्मानित सांसद हैं।
ओवैसी, साकेत गोखले और जनता की प्रतिक्रिया
ओवैसी ने इस फैसले पर सवाल उठाते हुए कहा कि यह एक ‘फैसला’ है, ‘न्याय’ नहीं। उन्होंने याद दिलाया कि मालेगांव बम विस्फोट में मुसलमानों को टारगेट कर मारा गया था और जब आरोपी हिंदू निकले, तो जांच एजेंसी और न्यायपालिका दोनों नरम हो गईं।
टीएमसी सांसद साकेत गोखले ने भी सवाल उठाया कि क्या यह महज इत्तेफाक है कि गृहमंत्री के बयान के अगले ही दिन सभी आरोपी बरी हो जाते हैं?
कौन थे पीड़ित?
- सय्यद अजहर (19 वर्ष)
- मुश्ताक शेख यूसुफ (24 वर्ष)
- शेख रफीक मुस्तफा (42 वर्ष)
- फरहीन (10 वर्ष)
- इफरान जियाउलुल खान (20 वर्ष)
- हारुन मुहम्मद शाह (70 वर्ष)
इनकी मौत के लिए ज़िम्मेदार कौन था? अगर कोर्ट में कोई दोषी नहीं पाया गया, तो असली अपराधी कहां हैं?
धर्म बनाम आतंकवाद: कौन तय करेगा परिभाषा?
यह पूरा प्रकरण यह स्पष्ट करता है कि भारत में आतंकवाद की परिभाषा अब धर्म से तय की जा रही है। अगर आरोपी मुस्लिम हो, तो तत्काल गिरफ्तारी और मीडिया ट्रायल होता है। लेकिन अगर हिंदू हो, तो राजनीतिक संरक्षण और आख़िर में बरी।
निष्कर्ष: यह फैसला नहीं, चेतावनी है
मालेगांव केस में आया फैसला इस देश के धर्मनिरपेक्ष तानेबाने पर गहरा प्रहार है। यह बताता है कि सत्ता की मदद से कैसे आतंकी मामलों में भी आरोपी ‘राष्ट्रभक्त’ बन जाते हैं। और सबसे बड़ी विडंबना यह कि जिन लोगों ने धर्म के आधार पर जान ली, अब वे अदालतों से क्लीन चिट पा रहे हैं।