जहां कुत्ते का बन रहा हो आवास प्रमाणपत्र, ऐसे बिहार में SIR का भरोसा करेगा क्या SC
“कुत्ता बाबू” यानी डॉग बाबू, एक ऐसा नाम जो सुनने में मजाक लगे, लेकिन आज भारतीय लोकतंत्र का सबसे कटु और शर्मनाक सच बन गया है। यह सिर्फ एक आवासीय प्रमाण पत्र का मामला नहीं है, यह उस व्यवस्था की पोल है जो आज आम नागरिक के वोटिंग अधिकार को छीनकर एक कुत्ते को बिहार का वैध निवासी घोषित कर रही है।
डॉग बाबू के नाम पर आवासीय प्रमाण पत्र!
पटना के मसौढ़ी प्रखंड में जारी एक आधिकारिक प्रमाण पत्र वायरल हुआ, जिसमें लाभार्थी का नाम ‘डॉग बाबू’ है और उसके पिता का नाम ‘कुत्ता बाबू’। यह प्रमाण पत्र वही है जो चुनाव आयोग SIR प्रक्रिया में सबसे अधिक वैध दस्तावेज मानता है। यही वो दस्तावेज है जिसके आधार पर तय होता है कि आप भारत के वोटर हैं या नहीं।
यह घटना न सिर्फ मजाकिया है, बल्कि खतरनाक भी है, क्योंकि यह उस SIR प्रक्रिया की गंभीरता को दिखाती है जिसके तहत बिहार में 1.26 करोड़ वोटरों के नाम काटे जाने की तैयारी है। क्या अब डॉग बाबू वोट डालेंगे, और बिहार के असली लोग बाहर कर दिए जाएंगे?
सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई और जस्टिस सूर्यकांत का “क्रिटिकल समय” पर आना
जब SIR की वैधता को लेकर मामला सुप्रीम कोर्ट में है, ठीक उसी वक्त बेंच में बदलाव हुआ। जस्टिस सूर्यकांत की एंट्री को लेकर कई वरिष्ठ वकीलों जैसे दुष्यंत दवे और प्रशांत भूषण ने पहले भी सवाल उठाए हैं। बेंच बदलाव और राजनीतिक हितों की पूर्ति के खेल को लेकर सुप्रीम कोर्ट की साख पहले ही सवालों के घेरे में है।
क्या यह वोटबंदी है?
साकेत गोखले, टीएमसी सांसद ने चुनाव आयोग की वेबसाइट से डेटा निकाल कर बताया कि 1 करोड़ 26 लाख नाम काटे जा चुके हैं। और यह तो बस शुरुआत है। जनवरी 2025 तक यह आंकड़ा और बढ़ेगा। जनवरी में जिन लोगों को वोटर माना गया था, वे जून में गायब हो गए। ये कौन सा जादू है? क्या बिहार के लोग अचानक मर गए, गायब हो गए, या दो जगह रजिस्टर हो गए?
जाति, धर्म और वर्गीय पूर्वग्रह?
यह कोई संयोग नहीं कि जिन राज्यों में भाजपा को चुनौती मिलती है—जैसे बिहार, बंगाल, तमिलनाडु, असम—वहीं SIR की आड़ में वोटर क्लीनिंग शुरू होती है। इसमें मुस्लिम, दलित, गरीब तबकों के नाम disproportionately हटाए जा रहे हैं। बेहद योजनाबद्ध ढंग से वोटर को भिखारी बना दिया गया है, जिससे उसे अपने ही वोटिंग अधिकार के लिए कागज़ों का ढेर लेकर अफसरों के चक्कर काटने पड़ें।
चुनाव आयोग की मंशा पर सवाल
बिहार में हर BLO (Booth Level Officer) पर दबाव है कि वह लाखों फॉर्म भरवाए। आधार कार्ड, मनरेगा कार्ड, राशन कार्ड को बार-बार खारिज किया जा रहा है, जबकि सुप्रीम कोर्ट इन्हें वैध मानता है। इस प्रक्रिया में आम जनता अपमानित हो रही है।
इंडियन एक्सप्रेस की ग्राउंड रिपोर्ट बताती है कि 650 में से सिर्फ 7 लोग ही आवश्यक दस्तावेज दे सके। यानी 99% लोग बाहर, और डॉग बाबू अंदर! लोकतंत्र का इससे बड़ा मजाक और क्या होगा?
क्या नीतीश-मोदी सरकार की नैतिक ज़िम्मेदारी बनती है?
आज जब भाजपा और JDU की सरकार बिहार में है, तो यह ज़िम्मेदारी उनकी बनती है कि वे इस तरह की वोटबंदी पर रोक लगाएं। लेकिन इसके उलट, प्रधानमंत्री मोदी तमिलनाडु में भव्य भाषण दे रहे हैं, नीतीश बाबू चुप हैं, और चुनाव आयोग मोदी की बैसाखी बना हुआ है।
क्या आगे बंगाल, असम, तमिलनाडु की बारी है?
जैसे ही बिहार में काम “सफल” होगा, यही मॉडल बंगाल, असम और दक्षिण भारत में लागू किया जाएगा। यह चुपचाप लोकतंत्र को खा जाने वाला वायरस है। आज डॉग बाबू है, कल आपके और मेरे वोटर कार्ड में भी कुछ “गलती” निकाल दी जाएगी।
निष्कर्ष: डॉग बाबू से लोकतंत्र तक
“डॉग बाबू” एक संयोग नहीं, एक संकेत है—उस जनविरोधी तंत्र का जो वोट को सत्ता की राह की बाधा मानता है। बिहार में जो हो रहा है, वह पूरे देश का ट्रायल रन है। अगर आज डट कर इसका विरोध नहीं किया गया, तो कल हम सब डॉग बाबू बन जाएंगे—हमारी पहचान, हमारा वोट, हमारी नागरिकता सब सरकारी सिस्टम के व्यंग्य का हिस्सा बन जाएंगे।