ऑपरेशन सिंदूर की आड़ में बांग्लादेशियों को बॉर्डर पार फेंकने का ऑपरेशन
2 जून को देश में एक गंभीर सवाल खड़ा हुआ — जब भारत ऑपरेशन सिंदूर के तहत पाकिस्तान के खिलाफ हवाई कार्रवाई में व्यस्त था, उसी समय भारत सरकार के कुछ हिस्से चुपचाप हजारों बांग्लादेशी नागरिकों को जबरन बांग्लादेश सीमा पर फेंक रहे थे। वह भी भारतीय वायुसेना के विमानों में बैठाकर।
इंडियन एक्सप्रेस की पड़ताल ने साफ किया है कि गुजरात, दिल्ली, हरियाणा, असम, त्रिपुरा, और मेघालय में इस कथित ‘पुशबैक ऑपरेशन’ को व्यवस्थित तरीके से अंजाम दिया गया।
क्या यह सिर्फ बांग्लादेशियों का निर्वासन था?
बिलकुल नहीं। इस ‘घुसपैठियों’ की पहचान अक्सर धार्मिक आधार पर की गई। जिन लोगों को उठाया गया — उनकी बड़ी तादाद में महिलाएं, बच्चे, बुज़ुर्ग और भारत में जन्मे लोग शामिल थे।
यह एक ‘मानवता विरोधी कार्रवाई’ कही जा सकती है क्योंकि—
- यह गोपनीय तरीके से की गई।
- कोई लोक सूचना या ड्यू प्रोसेस ऑफ लॉ लागू नहीं हुआ।
- उन्हें अपराधियों की तरह सार्वजनिक रूप से परेड करवाया गया।
- और कई मामलों में वो भारतीय नागरिक थे।
रहीमा बेगम और सुहाना बानो की कहानी
इंडियन एक्सप्रेस और स्क्रॉल की रिपोर्ट्स ने जो सबसे मार्मिक उदाहरण सामने रखा है, वह है:
रहीमा बेगम (50) और सुहाना बानो (59) — दोनों को असम में उनके घरों से बिना कोई कानूनी प्रक्रिया पूरी किए उठाया गया, डिटेंशन सेंटर में रखा गया, और फिर रात के अंधेरे में बांग्लादेश सीमा पर फेंक दिया गया।
जब बांग्लादेश की पुलिस ने उन्हें रोका, पीटा और वापस खदेड़ा — तब पता चला कि वे भारतीय हैं। रहीमा बेगम का वीडियो जब बांग्लादेशी मीडिया में चला, तब उनके बच्चों ने उन्हें पहचान कर वकील से संपर्क किया।
ऑपरेशन सिंदूर की आड़ क्यों?
जब देश की वायुसेना पाकिस्तान के खिलाफ कार्रवाई में व्यस्त थी, तो इस ऑपरेशन की आड़ में निर्वासन का यह कृत्य एक सोची-समझी योजना की तरह दिखाई देता है।
क्यों?
- देश युद्ध जैसे माहौल में था।
- एयरस्पेस अलर्ट पर थे, सीमाएं बंद थीं।
- मीडिया का ध्यान ऑपरेशन सिंदूर की ‘गौरवगाथा’ पर केंद्रित था।
ऐसे में यह “perfect timing” साबित हुई घुसपैठ के नाम पर संभावित नागरिकों को चुपचाप निष्कासित करने की।
सरकारी वाक्यविन्यास: “Pushed back”
इंडियन एक्सप्रेस की रिपोर्ट साफ कहती है — सरकार इसे “Push Back” कह रही है। यानी न सिर्फ यह स्वीकार किया गया, बल्कि इसे अधिकारिक भाषा में जायज़ भी ठहराया गया।
रिपोर्ट के मुताबिक:
“Nearly 4,000 people were deported or pushed back between May 6 to May 30, mostly during the period when Operation Sindoor was active.”
गुजरात इस सूची में सबसे आगे है।
सवाल जो सरकार को देने होंगे जवाब:
- क्यों ऑपरेशन सिंदूर के दौरान ही ‘निर्वासन मिशन’ चला?
- क्या निर्वासित लोगों को कोई कानूनी सहायता दी गई?
- क्या यह ड्यू प्रोसेस का उल्लंघन नहीं था?
- क्यों इस पर कोई संसद में या प्रेस में जानकारी नहीं दी गई?
- अगर घुसपैठ थी, तो किस आधार पर और कैसे सत्यापित किया गया?
- क्या मुसलमान पहचान ही निर्वासन का आधार थी?
मानवाधिकार और अंतरराष्ट्रीय छवि
भारत संयुक्त राष्ट्र के मानवाधिकार चार्टर और रिफ्यूजी कन्वेंशन का हिस्सा है। घुसपैठियों को निष्कासित करने के लिए कानूनी प्रक्रिया है — सूची बनाना, पुष्टि करवाना, डिप्लोमैटिक नोट्स भेजना, ट्रांजिट सुविधा देना।
रात के अंधेरे में महिलाओं और बच्चों को फेंकना — यह मानवता के खिलाफ है।
और यही कारण है कि बांग्लादेश ने विरोध भी जताया है।
ट्रंप, ऑपरेशन सिंदूर और बांग्लादेश कनेक्शन
जब ट्रंप भारत-पाक संघर्ष पर 11 बार दावा कर चुके हैं कि “हमने ही सीज़फायर करवाया,” तब भारत सरकार की विदेश नीति और सैन्य नीति पर पहले ही सवाल खड़े हैं। अब घरेलू मोर्चे पर यदि ये “अदृश्य निर्वासन” की खबरें सामने आ रही हैं, तो भारत की अंतरराष्ट्रीय छवि को भी नुकसान हो रहा है।
निष्कर्ष: चुप्पी का अंत जरूरी है
यह ज़रूरी है कि सरकार:
- इस पूरे ऑपरेशन की जांच के आदेश दे।
- सुप्रीम कोर्ट में चल रहे मामलों में पक्ष साफ करे।
- पारदर्शी रूप से प्रेस के सामने तथ्य रखें।
वरना इतिहास में यह दर्ज होगा कि एक युद्ध के दौरान देश ने अपनी ही ज़मीन से लोगों को धर्म और शक की बिनाह पर निर्वासित किया — और चुप रहा।