June 15, 2025 7:29 pm
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किसी मीलॉर्ड की एक चूक, किसी की फांसी की सजा

मकीरत, साईंबाबा, अक्षरधाम केस या आमिर खान—सिस्टम की गलत जांच और फैसलों से निर्दोषों को सालों जेल में रहना पड़ा। जवाबदेही कब तय होगी?

बेगुनाहों को फंसाने वाले सिस्टम को आखिर कब मिलेगी सजा

वह पिछले छह साल से अपनी फांसी का इंतज़ार कर रहा था। बारह साल से वह जेल में सड़ रहा था।

2013 में जब रामकीरत को एक तीन साल की बच्ची की हत्या के आरोप में गिरफ़्तार किया गया, तब वह सिर्फ़ 25 साल का एक मज़दूर था। आज 37 वर्ष की उम्र में सुप्रीम कोर्ट ने उसे आज़ाद किया और साफ कहा—वह निर्दोष है। अदालत ने पाया कि उसके खिलाफ कोई भी पुख्ता सबूत नहीं था, पूरी जांच झूठ पर आधारित थी।

लेकिन मीलॉर्ड, दोषी कौन है?

आपने उस ट्रायल कोर्ट और हाईकोर्ट के जजों को ज़िम्मेदार क्यों नहीं ठहराया, जिन्होंने उस गरीब मज़दूर को फांसी की सज़ा सुनाई? उन पुलिस अफसरों का क्या जो सबूतों के साथ छेड़छाड़ कर केस सुलझाने का तमगा लेना चाहते थे? वे असली कातिलों को ढूंढ़ने की जगह एक बेकसूर को फंसा बैठे।

सुप्रीम कोर्ट ने माना कि डीएनए रिपोर्ट से लेकर सारे तथ्यों में आरोपी को दोषी नहीं पाया गया। फिर भी ट्रायल कोर्ट और हाईकोर्ट ने वही तथ्य देखकर उसे सज़ा सुना दी।

सुप्रीम कोर्ट को दिखाई दे गया कि पुलिस ने सारी जांच, गवाहों को सिर्फ इस लिए manipulate किया ताकि वह केस को हल करने का तमगा हासिल कर सके। क्या ऐसी जांच करने वालों के खिलाफ कोई सख्त कार्रवाई नहीं होनी चाहिए? सोचिए, एक भी प्रमाण नहीं और देश की दो अदालतों ने इस निर्दोष गरीब को फांसी पर लटकाने का फैसला कर दिया।

कितनी बड़ी गड़बड़ी है—हमारे न्याय सिस्टम में। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि अति उत्साह से भरे रवैये की वजह से बॉम्बे हाइकोर्ट ने फांसी की सजा सुनाई और trial कोर्ट के फैसले को लागू रखा—क्यों। क्या सिर्फ यह कहकर काम चल सकता है?

न तीन साल की बच्ची को न्याय मिला और न इस गरीब मजदूर को जिसने अपनी जिंदगी के 12 साल जेल में इस दोषी सिस्टम की वजह से गंवाए। सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस विक्रम नाथ, संजय केरोल व संदीप मेहता ने इस निर्दोष को बरी तो किया लेकिन न्याय अधूरा है। 

यह कितना बड़ा दोष है — हमारी न्याय प्रणाली का।

दूसरी कहानी: मध्य प्रदेश हाईकोर्ट का 2020 का मामला

एक और दिल दहलाने वाला मामला मध्य प्रदेश हाईकोर्ट में सामने आया। छह साल की बच्ची के साथ बलात्कार के मामले में एक व्यक्ति को 20 साल की सजा सुनाई गई। बाद में हाईकोर्ट ने उसे बरी करते हुए पाया कि पुलिस ने जानबूझकर उसे फंसाया ताकि असली आरोपी को बचाया जा सके — जो खुद बच्ची का करीबी रिश्तेदार था।

यह भी पॉक्सो का मामला था। पीड़ित बच्ची की मां के बयान से यह साबित हुआ कि जिसे सज़ा दी गई, वह उस समय मौके पर था ही नहीं। उसे सिर्फ़ इसलिये फंसाया गया क्योंकि उसकी आरोपी से रंजिश थी।

जिस व्यक्ति को 20 साल की सजा सुनाई वह बाहर समान बेचने गया हुआ था और बच्ची के यौनांग पर उसके अंकल ने ही चोट पहुंचाई, और आरोपी को फंसाया क्योंकि उससे उसकी दुश्मनी थी। अब देखिए यह केस भी चीख-चीखकर वही कह रहा है जो महाराष्ट्र के थाणे का केस कह रहा है। लेकिन दोनों ही जगह जो दोषी सिस्टम है वह जस का तस कायम है। कोई केस उनके खिलाफ नहीं।

दोनों मामलों की कहानी अलग है, पर सवाल एक है—सिस्टम में दोषियों का कोई दोष नहीं?

जब जज भी इंसान होते हैं

सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस अभय एस. ओका ने 2016 में माना था कि उन्होंने एक घरेलू हिंसा केस में गलत निर्णय दिया। उन्होंने कहा कि जज भी इंसान हैं और गलती कर सकते हैं।

परंतु सवाल यह है—जब जज और पुलिस इंसान हैं, तो जिनकी ज़िंदगियां उनके फैसलों पर टिकी हैं, वो क्या नहीं?
गलती हो सकती है, पर उसकी जवाबदेही तो तय होनी चाहिए।

और भी उदाहरण

  • प्रो. जी.एन. साईंबाबा का केस — 90% विकलांग प्रोफेसर को माओवादी लिंक के झूठे आरोप में सालों जेल में यातना दी गई। बॉम्बे हाई कोर्ट ने बरी किया तो सुप्रीम कोर्ट ने उस फैसले पर रोक लगा दी, फिर दो साल जेल में रहना पड़ा और बाद में फिर अदालत ने उन्हें पूरी तरह से निर्दोष माना—लेकिन बाद में उनकी जान चली गई।
  • अक्षरधाम केस (2002) — छह अभियुक्तों को सुप्रीम कोर्ट ने 2014 में निर्दोष पाया। उनमें से तीन को फांसी सुनाई गई थी। 11 साल उन्होंने जेल में काटे। उस समय भी सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि पुलिस कोई सबूत नहीं पेश कर पाई और सरकार ने भी इन लोगों को पकड़ने से पहले दिमाग नहीं लगाया।
  • आमिर खान, दिल्ली — 14 साल जेल में रहे निर्दोष साबित होने तक।

हर मामले में एक पैटर्न है — फर्जी केस, झूठी गवाही, और दोषी सिस्टम को कोई सज़ा नहीं।

⚖️ निष्कर्ष: क्या अब भी आंखें मूंदे रहेंगे?

हर बार सुप्रीम कोर्ट कहता है कि “कोई सबूत नहीं था”, लेकिन कभी भी यह नहीं कहता कि जिन लोगों ने जानबूझकर झूठ गढ़ा, उन पर केस चलेगा। इतनी बड़ी नाइंसाफी, और कोई जवाबदेही नहीं?

जवाब है — नहीं मीलॉर्ड, अब यह काफी नहीं।

जब तक जांच अधिकारी, अभियोजक और गलत फैसले देने वाले न्यायाधीशों की जवाबदेही तय नहीं होगी, तब तक यह अन्याय बार-बार होगा।

न्याय अधूरा है, जब तक न्याय व्यवस्था स्वयं को उत्तरदायी नहीं मानती।

भाषा सिंह

1971 में दिल्ली में जन्मी, शिक्षा लखनऊ में प्राप्त की। 1996 से पत्रकारिता में सक्रिय हैं।
'अमर उजाला', 'नवभारत टाइम्स', 'आउटलुक', 'नई दुनिया', 'नेशनल हेराल्ड', 'न्यूज़क्लिक' जैसे
प्रतिष्ठित मीडिया संस्थानों

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