राहुल गांधी फिर वहां पहुंचे जिस जगह को PM मोदी की यात्रा का था इंतजार
जब ज़ख्मों के बीच पहुंचा एक नेता
24 मई 2025, जम्मू-कश्मीर का ज़िला पुंछ, जो मई की शुरुआत में ऑपरेशन सिंदूर और उसके बाद पाकिस्तानी गोलीबारी के चलते हिंसा और दहशत के साए में था, वहाँ एक सियासी चेहरा दर्द बाँटने और उम्मीद की लौ लेकर पहुँचा — राहुल गांधी।
आतंक के साए में मासूमियत की मौत
इस हिंसा में 28 लोग मारे गए, जिनमें 13 लोग सिर्फ पुंछ से थे और 70 से अधिक घायल हुए। मारे गए लोगों में क्राइस्ट स्कूल के 12 साल के दो जुड़वा बच्चे अरबा फातिमा और जेन अली भी थे। उनके पिता अब भी आईसीयू में हैं। यह हादसा बच्चों, परिजनों और पूरे इलाके के लिए गहरे सदमे का कारण बना।
बच्चों से मुलाकात और तीन शब्दों का मंत्र
राहुल गांधी ने इन मासूमों के स्कूल में जाकर बच्चों से बातचीत की, उन्हें सुनने को कहा, ताकि वे अपने दुख से बाहर आने की प्रक्रिया शुरू कर सकें। और फिर दिया एक सरल लेकिन गहरा संदेश —
“खूब मेहनत से पढ़ो, खूब मेहनत से खेलो और खूब दोस्त बनाओ।“
यह तीन शब्दों का मंत्र एक नेता की संवेदनशीलता को दर्शाता है, जो सिर्फ भाषण नहीं देता, बल्कि दिल से जुड़ने की कोशिश करता है।
कौन पहुंचा, कौन नहीं?
राहुल गांधी इससे पहले भी 22 अप्रैल के पहलगाम आतंकी हमले के बाद 25 अप्रैल को श्रीनगर पहुंचे थे और वहां पीड़ित परिवारों से मिले थे। वे कानपुर और करनाल में भी शोकग्रस्त परिवारों से मिले।
लेकिन सवाल उठते हैं कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, जिनके सेना की वर्दी में पोस्टर सोशल मीडिया पर तैर रहे हैं, अब तक पुंछ या पहलगाम हमले के पीड़ितों से क्यों नहीं मिले?
वे राजस्थान, बिहार, बीकानेर में रैलियां करते रहे, डायलॉग देते रहे, लेकिन जिनके घर उजड़ गए, उनके आंसू पोछने नहीं पहुंचे।
जनता की आवाज़: “यही है नेता की कमाई”
जब राहुल गांधी सभा गुरुद्वारा से मत्था टेककर निकले, एक स्थानीय निवासी ने उनका हाथ पकड़कर कहा — “यही है नेता की कमाई।”
यह लम्हा कैमरे में कैद हुआ, और सोशल मीडिया पर वायरल भी।
कांग्रेस ने इस घटना को राजनीतिक विमर्श में बदल दिया।
X (पूर्व में ट्विटर) पर एक पोस्ट में लिखा गया —
“दो नेता, आप तय करें कौन बेहतर है?”
कांग्रेस की एक और पोस्ट ध्यान खींचती है, जिसमें राहुल को बताया गया —
“अभिनेता नहीं, जननेता।”
क्या होगा असर?
इसका असर अभी कहना जल्दबाज़ी होगा, लेकिन तुलना की राजनीति शुरू हो चुकी है।
यह सिर्फ एक दौरा नहीं, बल्कि संवेदनशीलता और संवेदना की राजनीति का प्रतीक बन गया है।
राहुल गांधी ने अंत में वादा किया:
“मैं राष्ट्रीय स्तर पर यह मुद्दा उठाऊंगा।“
निष्कर्ष
जहां एक ओर सत्ता संकट में भी प्रचार की मुद्रा में दिखती है, वहीं दूसरी ओर विपक्ष का नेता पीड़ितों के आंसू पोछने पहुंचता है।
राजनीति की यही असली कसौटी है — आप उस वक़्त कहां खड़े हैं, जब लोग सबसे अकेले होते हैं।