भारत-चीन रिश्तों में नया ट्विस्ट: SCO बैठक के लिए जयशंकर की बीजिंग यात्रा पर बड़ा सवाल
विदेश मंत्री एस. जयशंकर की हालिया चीन यात्रा ने भारत की विदेश नीति के मौजूदा रुख और उसके भविष्य को लेकर कई गंभीर सवाल खड़े कर दिए हैं। शंघाई सहयोग संगठन (SCO) की बैठक से 72 घंटे पहले जयशंकर का बीजिंग पहुंचना, और वहां चीन के उपराष्ट्रपति हान झेंग से मुलाकात करना, बताता है कि भारत-चीन संबंधों में कुछ तो ऐसा चल रहा है, जो जनता के सामने स्पष्ट नहीं है।
मोदी की विदेश नीति: फ्लिप-फ्लॉप का खेल?
प्रधानमंत्री मोदी ने अभी कुछ महीने पहले गुजरात में ‘छोटी-छोटी आंखों वाले गणेश जी’ कहकर चीन के उत्पादों का बहिष्कार करने का आह्वान किया था। बीजेपी नेताओं और समर्थकों ने भी चीनी सामान का विरोध करते हुए तस्वीरें खिंचवाई थीं। लेकिन अब उसी चीन से गलबहियां? जयशंकर का चीन जाकर ‘मक्खन लगाना’ या ‘अप्पीज़मेंट पॉलिटिक्स’ करना, भारत की विदेश नीति के फ्लिप-फ्लॉप चरित्र को ही उजागर करता है।
विदेश नीति में ट्विस्ट के पीछे की वजहें
- अमेरिका का दबाव: ट्रंप ने हाल ही में धमकी दी है कि भारत, चीन और ब्राजील यदि रूस से व्यापार जारी रखते हैं तो उनपर सेकेंडरी सैंक्शंस और 100% टैरिफ लग सकता है। ऐसे में भारत के लिए चीन से रिश्ता बनाए रखना एक आर्थिक मजबूरी भी बनता जा रहा है।
- रियर अर्थ मेटल्स संकट: भारत की इलेक्ट्रॉनिक, रक्षा और ग्रीन एनर्जी इंडस्ट्री चीन से आने वाले रियर अर्थ मेटल्स पर निर्भर है। अमेरिका से बढ़ते तनाव के बीच भारत के लिए चीन का विकल्प ढूंढना आसान नहीं।
- पड़ोसियों से कटते रिश्ते: पाकिस्तान, बांग्लादेश, नेपाल, श्रीलंका – सभी से भारत के रिश्ते 2014 के बाद बिगड़े हैं। चीन ने इन देशों में प्रभाव बढ़ा लिया है। पाकिस्तान-चीन मिलकर सार्क के विकल्प के तौर पर नया रीजनल ब्लॉक बनाने की तैयारी कर रहे हैं। ऐसे में भारत के पास चीन से बात करने के अलावा कोई विकल्प नहीं बचता।
सेना के बयानों और विदेश मंत्रालय के रवैये में विरोधाभास
जयशंकर की चीन यात्रा के कुछ दिन पहले ही भारत के उपसेना प्रमुख लेफ्टिनेंट जनरल राहुल आर सिंह ने चीन को खुलेआम दुश्मन करार दिया था। उनका बयान था कि पाकिस्तान के साथ-साथ चीन भी ऑपरेशन सिंदूर के समय भारत के खिलाफ खड़ा था। वहीं विदेश मंत्री का चीन जाकर रिश्ते सुधारने का राग अलापना एक बड़ी नीतिगत असंगति को दर्शाता है।
चीन की नजर में भारत की छवि
चीनी मीडिया और विश्लेषकों के मुताबिक जयशंकर की यात्रा इकनॉमिक कमपल्शन से प्रेरित है। वहां सवाल उठ रहे हैं कि भारत आखिर 72 घंटे पहले क्यों पहुंचा? क्या यह चीन को appease करने की कोशिश है या अमेरिका की धमकियों से बचने की रणनीति?
ब्रिक्स, अमेरिका और वैश्विक मंचों पर भारत की स्थिति
ब्रिक्स शिखर सम्मेलन में भी भारत का असर कमजोर पड़ा। अमेरिका से रिश्तों पर ट्रम्प का टैरिफ डंडा लटका ही हुआ है। SCO, क्वाड, या BRICS – हर मंच पर भारत का कद घटता दिख रहा है। ऐसे में चीन के साथ गलबहियां डालना विदेश नीति का मजबूरीभरा कदम दिखता है, दूरदर्शी रणनीति नहीं।
भक्तों के लिए कठिन समय
मोदी के ‘चोटी-चोटी आंखों वाले’ बयान पर जो भक्त चीनी सामान जलाते घूम रहे थे, अब उनके सामने दुविधा है। जब प्रधानमंत्री और विदेश मंत्री खुद चीन से दोस्ती का राग अलाप रहे हैं, तब वे भक्त अब किसका बहिष्कार करेंगे?
निष्कर्ष
विदेश नीति में बदलाव बुरा नहीं। लेकिन उसका आधार साफ, पारदर्शी और दीर्घकालीन हितों पर आधारित होना चाहिए। फिलहाल, भारत की विदेश नीति में ट्विस्ट तो है, विजन नहीं। जयशंकर की चीन यात्रा भारत की कमजोर होती अंतरराष्ट्रीय स्थिति और विदेशी दबावों के आगे झुकती कूटनीति को ही उजागर करती है।