दो सेनाध्यक्ष, दो तस्वीरें: जब एक ने उठाई हथियारों की कमी की बात, दूसरा पहुंचा धर्माचार्य के चरणों में
भारतीय लोकतंत्र इस समय जिन जटिलताओं में उलझा हुआ है, उसकी दो प्रतीकात्मक तस्वीरें हाल ही में सामने आईं — दोनों ही भारतीय सशस्त्र सेनाओं के शीर्षस्थ अधिकारियों की।
एक ओर वायुसेना प्रमुख एयर चीफ मार्शल अमरप्रीत सिंह हैं, जिन्होंने सार्वजनिक रूप से चिंता जताई कि सेना को अभी भी समय पर विमान और आवश्यक सैन्य साजो-सामान नहीं मिल पा रहे हैं। दूसरी ओर थलसेना प्रमुख उपेन्द्र द्विवेदी हैं, जो ड्यूटी की ड्रेस में सीधे पहुँचे धर्माचार्य रामभद्राचार्य के चरणों में और उन्हें गुरु मानते हुए ‘गुरु दक्षिणा’ में POK यानी पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर का ‘वचन’ दे बैठे।
वायुसेना प्रमुख की चिंता: समय पर डिलीवरी क्यों नहीं?
एयर चीफ मार्शल अमरप्रीत सिंह ने रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह के सामने एक अहम और ज़रूरी सवाल उठाया — आख़िर समय पर सैन्य उपकरणों की डिलीवरी क्यों नहीं हो रही?
उन्होंने कहा:
“हमारे पास पर्याप्त संसाधन नहीं हैं, डिलीवरी में लगातार देरी हो रही है। मुझे इस बात की गंभीर चिंता है।”
यह बयान महज़ एक पेशेवर चिंता नहीं, बल्कि भारत की राष्ट्रीय सुरक्षा से जुड़ा बड़ा सवाल है। वायुसेना प्रमुख स्पष्ट रूप से रक्षा मंत्रालय को यह याद दिला रहे हैं कि “वचन” देना आसान है, लेकिन वक्त पर युद्धक विमान देना ज़िम्मेदारी है।
थलसेना प्रमुख की प्राथमिकता: धर्म या राष्ट्र?
इसी के उलट तस्वीर है थलसेना प्रमुख जनरल उपेन्द्र द्विवेदी की, जो सेना की वर्दी में रामभद्राचार्य से मिलने पहुंचे और उन्हें “गुरु” घोषित कर दिया। यह मुलाकात केवल श्रद्धा का प्रदर्शन नहीं थी, बल्कि उस क्षण ने तब और विस्मय पैदा किया जब रामभद्राचार्य ने ‘गुरु दक्षिणा’ में POK की मांग कर दी — और थलसेना प्रमुख ने उसे “स्वीकार” कर लिया।
क्या एक सक्रिय सेनाध्यक्ष किसी धर्मगुरु के समक्ष इस प्रकार झुक सकता है?
क्या सेना का काम रक्षा नीति के तहत राजनीतिक नेतृत्व के निर्देशों पर कार्य करना है या धार्मिक आकाओं की मांगों पर?
सेना और धर्मनिरपेक्षता: धुंधला होता फासला
भारतीय सेना दशकों से अपनी गैर-पक्षपाती, धर्मनिरपेक्ष और पेशेवर छवि के लिए जानी जाती रही है। वर्दी में किसी धार्मिक मंच पर जाकर उस मंच की भावनात्मक मांगों को स्वीकारना — सेना के इस मूल सिद्धांत को गंभीर चुनौती देता है।
जब थलसेना प्रमुख ड्यूटी की ड्रेस में किसी धर्मगुरु से ‘गुरु दीक्षा’ लेते हैं, वह न केवल सेवा-शपथ का उल्लंघन है, बल्कि सेना की राजनीतिक और धार्मिक तटस्थता को भी धूमिल करता है।
सवाल जो रह जाते हैं
- क्या एक सेना प्रमुख अपने विवेक से POK पर निर्णय कर सकता है?
- क्या यह देश की रक्षा नीति का हिस्सा था या निजी भक्ति का प्रदर्शन?
- और सबसे बड़ा सवाल — क्या धार्मिक मंचों से रणनीतिक ऐलान करना भारतीय लोकतंत्र की सैन्य मर्यादा के अनुकूल है?
निष्कर्ष
इन दो तस्वीरों के बीच भारत की सशस्त्र सेनाओं की दो विपरीत दिशाएं उभरती हैं। एक ओर पेशेवर चिंता और जवाबदेही का आह्वान है — जो वायुसेना प्रमुख करते हैं। दूसरी ओर सेना का धर्म में विलय — जो थलसेना प्रमुख द्वारा सार्वजनिक रूप से प्रदर्शित किया गया।
इस पूरे घटनाक्रम में लोकतंत्र की बुनियादी संरचना, संवैधानिक दायित्व और सेना की भूमिका — तीनों ही सवालों के कटघरे में हैं।
क्या देश एक पेशेवर सेना की अपेक्षा करता है, या एक ऐसे सेनाध्यक्ष की जो “गुरु दक्षिणा” में भू-राजनीतिक बयानबाज़ी करने लगे?