June 13, 2025 11:47 am
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जनगणना में और देरी क्यों? क्या परिसीमन भी है एजेंडे में?

2011 के 17 साल बाद अब नई जनगणना होगी। हर 10 साल में होने वाली जनगणना में 7 साल की देरी क्यों। और इसी के साथ परिसीमन को लेकर भी नए सिरे से बहस शुरू हो गई है। देखिए बेबाक भाषा का ख़ास कार्यक्रम Point to Point पत्रकार मुकुल सरल के साथ

जनगणना की घोषणा के साथ ही उठे कई सवाल, परिसीमन को लेकर भी नए सिरे से बहस

देर आयद…लेकिन क्या दुरुस्त भी आए! देर और देर के बाद और देर। आख़िर क्यों? यह सवाल हर ज़ेहन में उठ रहा है।

2011 के 17 साल बाद अब नई जनगणना होगी। हर 10 साल में होने वाली जनगणना में 7 साल की देरी क्यों। और वो भी अभी 2025 में शुरू नहीं हो रही बल्कि क़रीब दो साल बाद– 2027 में शुरू होगी। पूरी कब होगी पता नहीं।

यह जनगणना 2020 में शुरू हो जानी थी, लेकिन उस समय कोविड का बहाना बनाकर इसे टाल दिया गया। और फिर टाला ही जाता रहा।

हालांकि कोविड में भी कोई काम नहीं रुका था। चुनाव और प्रचार भी नहीं। लेकिन अब। 2025 से ही क्यों नहीं।

अब शायद जाति जनगणना का बहाना है।

केंद्रीय गृह मंत्रालय के अनुसार, देश में दो चरणों में जनगणना आयोजित की जाएगी, जिसमें पहली बार सभी जातियों की गणना भी शामिल होगी।

पहला चरण: 1 अक्टूबर 2026 से शुरू होगा, जो हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड, लद्दाख और जम्मू-कश्मीर जैसे बर्फ़बारी वाले क्षेत्रों में लागू होगा।

और दूसरा चरण व्यापक होगा जिसमें 1 मार्च 2027 से देश के शेष हिस्सों में जनगणना और जाति जनगणना का काम शुरू होगा।

जनगणना अधिनियम, 1948 की धारा 3 के तहत, इस संबंध में अधिसूचना 16 जून 2025 को जारी की जाएगी।

इस जनगणना की ख़ासियत

ऐतिहासिक देरी के अलावा इस जनगणना की कुछ ख़ासियत भी हैं। जैसे 1931 के बाद पहली बार जातिवार जनगणना भी होगी।

इसके अलावा यह भारत की पहली डिजिटल जनगणना होगी, जिसमें नागरिक स्वयं ऑनलाइन फॉर्म भर सकेंगे।

यह जनगणना महिला आरक्षण विधेयक 2023 के कार्यान्वयन में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकती है, जिसमें महिलाओं के लिए संसद और विधानसभाओं में एक-तिहाई सीटें आरक्षित की गई हैं।

कांग्रेस ने साधा निशाना

कांग्रेस महासचिव जयराम रमेश ने सोशल मीडिया एक्स पर पोस्ट किया “वास्तव में 2021 में होने वाली जनगणना को लेकर अगले 23 महीनों की देरी करने का कोई कारण नहीं है. मोदी सरकार केवल हेडलाइन बटोरने में सक्षम है, डेडलाइन पूरा करने में नहीं.”

तमिलनाडु के मुख्यमंत्री और DMK नेता एम.के. स्टालिन ने केंद्र सरकार से जनगणना की समयसीमा स्पष्ट करने की मांग की। उन्होंने पूछा “जनगणना कब शुरू होगी? कब समाप्त होगी?”

जनगणना कितनी महत्वपूर्ण

जनगणना किसी भी देश के नीति निर्माण और योजना निर्धारण के लिए बहुत महत्वपूर्ण होती है। जनसंख्या, उम्र, लिंग, शिक्षा, रोजगार, भाषा, धर्म आदि के आंकड़ों के आधार पर सरकार नीतियाँ बनाती है और योजनाएं तय करती है।

जैसे कहां कितने स्कूल, अस्पताल, या राशन की दुकान होने चाहिए — इसका आधार जनगणना से आता है।

इसके अलावा केंद्र और राज्य सरकारों के बीच वित्त आयोग द्वारा अनुदानों का बंटवारा जनसंख्या के आधार पर होता है।

तमाम योजनाओं जैसे मनरेगा, पीएम आवास योजना आदि में राज्यों को आबादी के अनुपात में बजट मिलता है।

और फिर आता है एक और अहम मुद्दा संसदीय प्रतिनिधित्व और डिलीमिटेशन यानी परिसीमन का मुद्दा। जो मुख्यतया जनसंख्या के आधार पर ही तय होता है।

क्या है परिसीमन?

आपको बता दें कि 1976 के 42वें और फिर 2001 के 84वें संविधान संशोधन के तहत परिसीमन को 2026 तक स्थगित कर दिया गया था, ताकि दक्षिण और उत्तर भारत के बीच जनसंख्या नियंत्रण के अंतर से सीटों में असंतुलन न हो।

लेकिन 2026 के बाद इसे फिर से लागू करने की संभावना है — और इसीलिए 2027 में प्रस्तावित जनगणना/जातीय गणना बहुत महत्वपूर्ण हो जाती है। हालांकि परिसीमन के बारे में अभी कोई घोषणा नहीं की गई है।

यह मुद्दा बेहद सुलगता हुआ मुद्दा है और इससे राज्यों के बीच तनाव पैदा होने की संभावना है। पिछले दिनों हमने ऐसा देखा भी जब परिसीमन की बात उठी और दक्षिण भारत के कई राज्यों के मुख्यमंत्रियों ने ज़्यादा बच्चे पैदा करने की बात तक कही।

यह सवाल बार बार उठा कि क्या दक्षिणी राज्यों को जनसंख्या नियंत्रण करने की सज़ा दी जाएगी?

आख़िरी परिसीमन

आपको बता दें कि आखिरी परिसीमन 2008 में हुआ था। इसके लिए आयोग का गठन 2001 की जनगणना के बाद 2002 में हुआ लेकिन चूंकि संविधान संशोधन के तहत लोकसभा और विधानसभा सीटों की संख्या 2026 तक स्थिर रखी गई थी। इसलिए इसमें लोकसभा और राज्य विधानसभाओं की सीटों की संख्या वही रही, सिर्फ सीमाएं पुनर्निर्धारित की गई थीं। आरक्षित (SC/ST) सीटों की नई गणना हुई। कुछ नए निर्वाचन क्षेत्र बने, पुराने विलीन भी हुए।

परिसीमन में आख़िरी बार संसदीय सीटों की संख्या को पुनर्निर्धारित1976 में किया गया था। जिसका आधार 1971 की जनगणना थी।

इसमें उन राज्यों को लोकसभा में अधिक सीटें मिलीं जिनकी जनसंख्या 1971 तक अधिक थी। जैसे उत्तर प्रदेश, बिहार आदि।

इसी के बाद इंदिरा गांधी सरकार जनसंख्या नियंत्रण को प्रोत्साहित करने के उद्देश्य से 1976 में 42वां संविधान संशोधन लाई जिसके तहत लोकसभा और विधानसभा सीटों की कुल संख्या को “फ्रीज़” कर दिया गया — यानी 2026 तक कोई पुनर्वितरण नहीं होगा, भले ही जनसंख्या बढ़े।

इसी प्रतिबंध को 2001 में 84वां संविधान संशोधन के जरिये 2026 तक बढ़ाया गया, ताकि जिन राज्यों ने जनसंख्या पर नियंत्रण किया है मुख्यतः दक्षिणी राज्य, उन्हें राजनीतिक नुक़सान न हो।

इस तरह 1976 का परिसीमन ही आख़िरी बार था जब संसदीय सीटों का पुनर्निर्धारण (reallocation) हुआ।

लेकिन तब भी सीटों का असंतुलन बना, और 2026 के बाद यदि पुनर्वितरण होता है तो यह असंतुलन और गहरा हो सकता है। क्यों? इसकी ठोस वजह है कि उत्तर भारत की जनसंख्या तेज़ी से बढ़ना और दक्षिण भारत की कमोबेश कम या स्थिर रहना।

आपको बता दें कि राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (NFHS-5, 2019-21) के अनुसार, भारत में Total Fertility Rate – TFR यानी कुल प्रजनन दर औसतन 2 है। यानी एक महिला पर दो बच्चे।

और आज की तारीख़ में उत्तर भारत के ज़्यादातर राज्यों की प्रजनन दर 2 या दो से ज़्यादा पहुंच गई है। बिहार की प्रजनन दर तीन के आसपास पहुंच गई है। और यूपी की 2.5 से ऊपर। जबकि दक्षिण के राज्य तमिलनाडु, केरल आदि में यह 2 से नीचे यानी 1.7, 1.8 के बीच बनी हुई है।

यानी अगर जनसंख्या के आधार पर परिसीमन हुआ तो एक बार फिर दक्षिण के राज्य नुक़सान में रहेंगे।

और यह जनगणना भारत के संघीय ढांचे, संसदीय संतुलन और क्षेत्रीय राजनीति में बड़े बदलाव ला सकती है।

यही वजह है कि कांग्रेस और दक्षिण भारतीय दलों DMK, TRS, आदि ने जनगणना की सावधानीपूर्वक निगरानी की बात कही है — कि कहीं इसका प्रयोग राजनीतिक संतुलन बदलने के लिए न किया जाए।

कैसा होता है लोकसभा सीटों का निर्धारण

अभी तक करीब 10 लाख की आबादी पर लोकसभा की एक सीट निर्धारित है। यह 1971 की जनगणना के आधार पर है। उस समय भारत की जनसंख्या करीब 54 करोड़ थी यही वजह है कि लोकसभा में 543 सीटें निर्धारित की गईं। आज की तारीख़ में अनुमान है कि जनसंख्या बढ़कर 140 करोड़ हो गई है। इस हिसाब से आज लोकसभा की सीटें होनी चाहिए 1400 (एक हज़ार चार सौ)।

यही वजह है कि नए संसद भवन में लोकसभा में बैठने की क्षमता बढ़ाई गई। अब लोकसभा कक्ष में 888 सीटें है। इसके अतिरिक्त, संयुक्त सत्रों के लिए इस कक्ष की क्षमता बढ़ाकर 1,272 सीटें की गई है।

फिर राज्यवार गणित लगाएं

1971 में यूपी की जनसंख्या जिसमें उत्तराखंड भी शामिल था, करीब साढ़े 8 करोड़ थी। इसलिए 10 लाख आबादी के हिसाब से सबसे ज़्यादा सीटें हिस्से में आईं– 85

अब उत्तराखंड अलग होने के बाद भी यूपी के पास लोकसभा की पूरे देश में सबसे ज्यादा 80 सीटें हैं। इसलिए कहा जाता है कि दिल्ली की कुर्सी का रास्ता लखनऊ से होकर जाता है।

अब अगर यूपी की जनसंख्या इस समय अनुमानित 24 करोड़ है तो हिसाब लगाइए यूपी के हिस्से कितनी सीटें आएंगी। 240.

और तमिलनाडु के हिस्से। तमिलनाडु में अभी 39 सीटें हैं। 1971 में इसकी जनसंख्या क़रीब 4 करोड़ थी। और आज जनसंख्या है 7 से 8 करोड़ के बीच। अब 10 लाख आबादी के हिसाब से उसकी सीटें 70 या 80 हो सकती हैं। यानी दोगुनी।

और यूपी की 80 से 240 यानी तीन गुनी। किसे नुक़सान हुआ। तमिलनाडु को। यही असंतुलन उत्तर भारत के मुकाबले दक्षिण भारत व अन्य छोटे राज्यों के बीच है और यह और बढ़ रहा है।   

फिर इसका हल क्या है?

इसके लिए कुछ लोग राज्यसभा की ताकत बढ़ाना या मतदान भार (weighted voting) जैसे समाधान सुझाते हैं।

राज्यसभा में प्रत्येक राज्य की सीटें भी जनसंख्या पर आधारित होती हैं। हालाँकि लोकसभा जितनी नहीं।

बड़ी जनसंख्या वाले राज्य — जैसे यूपी, महाराष्ट्र — को ज़्यादा राज्यसभा सीटें मिली हुई हैं।

राज्यसभा में “समानता सिद्धांत” लागू करना — जैसे अमेरिका में सीनेट में हर राज्य को 2 सीटें मिलती हैं, चाहे जनसंख्या कुछ भी हो।

इससे दक्षिण, पूर्वोत्तर और छोटे राज्यों को राष्ट्रीय नीति में संतुलित अधिकार मिलेगा।

दूसरा समाधान बताते हैं कि लोकसभा में “मतदान भार” लागू करना

यानी— हर सांसद का वोट समान न होकर, उनके राज्य की जनसंख्या या अन्य मानकों के आधार पर भारित हो।

उदाहरण: उत्तर प्रदेश के सांसद का 1 वोट = 1 भार

लेकिन केरल या नगालैंड के सांसद का वोट = 1.5 या 2 भार

इससे कम सीट वाले राज्यों को संतुलन में ज़्यादा प्रभाव मिल सकता है।

लेकिन यह सब बेहद मुश्किल हैं क्योंकि इसके लिए संविधान संशोधन करना पडे़गा। और शायद राजनीतिक सहमति भी न बने। उत्तर भारत के राज्य इसका निश्चित ही विरोध करेंगे। इससे संघीय तनाव होगा यानी “एक राष्ट्र, दो वोट की ताक़त?” जैसे सवाल उठेंगे।

इसी तरह का तीसरा समाधान यह है कि जिन राज्यों ने जनसंख्या नियंत्रण किया यानी जिन राज्यों में जन्म या प्रजनन दर राष्ट्रीय औसत 2 से कम है उनकी एक लोकसभा सीट का निर्धारण कम जनसंख्या पर और जिन राज्यों में जन्म दर 2 या 2 से अधिक है उनकी एक सीट ज़्यादा जनसंख्या पर। जैसे अभी 10 लाख आबादी पर एक सीट तय है। तो आगे छोटे या जनसंख्या नियंत्रण वाले राज्यों की सीट 15 लाख पर और यूपी जैसे बड़े राज्यों की 25 लाख आबादी पर तय की जाए। इससे संतुलन बनेगा लेकिन इसमें भी वही चुनौती है संविधान संशोधन की और एक वोट–एक अधिकार की अवधारणा पर चोट लगेगी।

इसलिए यह एक टेढ़ी खीर है। एक जलता हुआ सवाल। यानी इसे हल करना आसान नहीं है बल्कि आग से खेलने जैसा ही है। इसी के साथ सीटों का भूगोल बदलने से भी बड़ी चुनौतियां पैदा होंगी। इसको लेकर भी बीजेपी की मंशा पर सवाल हैं। देखना होगा कि इसका हल क्या होगा। लेकिन दक्षिण भारत की यह मांग जायज़ है कि उन्हें जनसंख्या नियंत्रण की सज़ा न दी जाए।

फ़िलहाल तो जनगणना और साथ में जातीय जनगणना ही समय से पूरा करना और फिर संख्या के हिसाब से सीटों का बंटवारा और महिला आरक्षण भी समाहित करना ही एक बड़ी चनौती है।

यहां यह भी याद रखिए कि अगले लोकसभा चुनाव 2029 में हैं। जिसके लिए एक राष्ट्र–एक चुनाव की भी कवायद चल रही है। हालांकि कहा जा रहा है कि जनगणना के फाइनल आंकड़ें शायद 2030 ही मिल पाएंगे लेकिन अगर अंतरिम आंकड़ों पर कोई फ़ैसला लिया गया तो बड़ा फेरबदल हो सकता है। यानी अगला आम चुनाव देश और लोकतंत्र के लिए बेहद अहम होने जा रहा है।

मुकुल सरल

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