June 30, 2025 3:44 pm
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बिहार से होगी बदलाव की पुकार

सीपीआई(एमएल) महासचिव दीपंकर भट्टाचार्य से खास बातचीत — बिहार चुनाव, ऑपरेशन सिंदूर, जाति जनगणना, आदिवासी हिंसा और आरएसएस के फासीवादी एजेंडे पर बेबाक विश्लेषण। पढ़िए 2025 की लड़ाई का पूरा सच।

2025 की लड़ाई: संघीय सत्ता बनाम जनसंविधान — दीपंकर भट्टाचार्य से ख़ास बातचीत

दिल्ली स्थित सीपीआई(एमएल) लिबरेशन के U-90 कार्यालय में हम मौजूद थे, जहां हमने पार्टी के महासचिव दीपंकर भट्टाचार्य से विस्तार से बातचीत की। यह बातचीत सिर्फ एक चुनावी समीक्षा नहीं थी, बल्कि भारत के समकालीन राजनीतिक परिदृश्य, वाम राजनीति की भूमिका, RSS के उभार, जाति जनगणना से लेकर ऑपरेशन कगार और आदिवासी विरोध तक, कई महत्वपूर्ण सवालों को छूती है।

वाम की नई राजनीतिक शैली और ‘भाकपा माले’ की ताक़त

सीपीआई(एमएल) लिबरेशन को वाम राजनीति में एक अलग तरह का हस्तक्षेप माना जाता है — न सिर्फ़ पार्लियामेंट्री राजनीति में बल्कि सड़क पर भी। बीते एक दशक में जिस तरह भगपा माले (भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (माले)) ने ज़मीनी आंदोलनों और चुनावी राजनीति को जोड़ा है, वह उन्हें अन्य दलों से अलग बनाता है। बिहार की राजनीति में तो आज यह स्थिति है कि बिना भगपा माले के महागठबंधन की राजनीति अधूरी है। पार्टी के दो सांसद संसद में हैं, और उनकी उपस्थिति निर्णायक मानी जाती है।

बिहार का रण और ऑपरेशन सिंदूर की विफलता

दीपंकर भट्टाचार्य बिहार के चुनावी दौरे पर रवाना होने से पहले कहते हैं, “बिहार में इस बार बीजेपी को कोई ज़मीनी प्रतिक्रिया नहीं मिल रही है। शाहाबाद क्षेत्र में मोदी की सभाएं कमजोर रहीं। यहां तक कि चारों सांसदों ने पीएम से मिलने का समय मांगा था, मगर उन्होंने मिलने का वक्त नहीं दिया।”

वह यह भी जोड़ते हैं कि जाति जनगणना की घोषणा और ऑपरेशन सिंदूर — दोनों ही बीजेपी की प्रतिक्रियात्मक रणनीति हैं। “पटना का रोड शो फ्लॉप रहा, विक्रमगंज की सभा भी खाली रही,” वह कहते हैं। उनका मानना है कि बिहार इस बार महाराष्ट्र नहीं बनेगा, बल्कि झारखंड जैसी जनता की राजनीतिक सजगता दिखाएगा।

पलटवार करता जनमत और ‘नरेंद्र सरेंडर’ का विमर्श

पहलगाम हमले के बाद अंतरराष्ट्रीय मंच पर भारत की छवि और मोदी सरकार की विदेश नीति को लेकर गंभीर सवाल खड़े हुए हैं। दीपंकर कहते हैं, “एक तरफ़ अमित शाह कहते हैं कि सब कुछ ठीक है, दूसरी ओर 2000 लोग मारे जाते हैं। और विदेश नीति? पूरी तरह अलग-थलग पड़ गए हैं।”

ऑपरेशन सिंदूर पर भी उन्होंने स्पष्ट कहा कि यह पूरी तरह से पलटवार कर गया है। “बड़े गर्व से पूरे देश में सिंदूर बिखेरने की योजना थी, लेकिन यह सब उलटा पड़ गया,” वह हँसते हुए कहते हैं। “राम और राष्ट्रवाद की जो राजनीति बीजेपी की सबसे बड़ी ताक़त थी, अब वही उसकी सबसे बड़ी कमज़ोरी बनती जा रही है।”

वह राहुल गांधी द्वारा उठाए गए ‘नरेंद्र सरेंडर’ के मुद्दे पर कहते हैं, “जब ट्रंप बार-बार बोल रहा है कि हमने धमकी दी और भारत रुक गया, तो प्रधानमंत्री को जवाब देना चाहिए। चुप्पी से लगता है कि बात में सच्चाई है।”

RSS की सत्ता और फासीवाद का प्रसार

2025 संघ और वाम दोनों के लिए 100 वर्षों का प्रतीक वर्ष है। दीपंकर साफ़ कहते हैं, “RSS कभी भी संविधान को स्वीकार नहीं करता था। जब संविधान बन रहा था, तब ‘ऑर्गनाइज़र’ में लिखा जा रहा था कि यह भारतीय नहीं है। अब वे सत्ता में हैं, और खुलकर अपने फासीवादी एजेंडे को लागू कर रहे हैं।”

वह कहते हैं कि आज RSS की सामाजिक पैठ बढ़ी है, लेकिन वह सत्ता-आश्रित है। “अगर सत्ता से हटाया जाए, तो वह कमजोर है और उसे हराया जा सकता है,” वे कहते हैं।

वामपंथियों को उन्होंने आत्मालोचना का सुझाव भी दिया: “हमें अपने सांगठनिक काम को मजबूत करना होगा, लोगों के साथ रिश्ते और गहरे करने होंगे। यही वह जगह है जहां RSS ने हमसे सीखा है।”

ऑपरेशन कगार: आदिवासी संघर्षों पर हमला

छत्तीसगढ़ के बस्तर में ऑपरेशन कगार के तहत 500 आदिवासियों की हत्या हुई, लेकिन न कहीं शोर, न विरोध। दीपंकर कहते हैं, “जब सलवा जुडूम हुआ, तब सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि यह असंवैधानिक है। आज फिर वही दोहराया जा रहा है।”

सरकार ने माओवादी खतरे का बहाना बनाकर गांधीवादी कार्यकर्ताओं, पत्रकारों और शांतिपूर्ण मंचों तक को निशाना बनाया है। “बेला भाटिया, मंजूष कुमार, मनीष कुंद्रम जैसे लोग टारगेट पर हैं। आदिवासियों के लिए बनाए गए पेसा क़ानून की धज्जियाँ उड़ाई जा रही हैं।”

भविष्य की लड़ाई: एकजुट विपक्ष और संविधान की रक्षा

दीपंकर कहते हैं कि आज आरएसएस के खिलाफ़ एक मज़बूत वैचारिक आंदोलन की ज़रूरत है। “संविधान सिर्फ़ किताब नहीं है। यह आज़ादी की लड़ाई से उपजा हुआ जन-चेतना का दस्तावेज़ है। इसे बचाने के लिए वामपंथियों, गांधीवादियों, अंबेडकरवादियों और समाजवादियों को साथ आना होगा।”

वह 2025 के अपने सपने के बारे में कहते हैं, “हमारा सपना है कि बिहार से वह आवाज़ गूंजे जो बीते 20 साल से कह रही है — सरकार बदलो, बिहार बदलो। इस बार वह आवाज़ कामयाब हो।”

भाषा सिंह

1971 में दिल्ली में जन्मी, शिक्षा लखनऊ में प्राप्त की। 1996 से पत्रकारिता में सक्रिय हैं।
'अमर उजाला', 'नवभारत टाइम्स', 'आउटलुक', 'नई दुनिया', 'नेशनल हेराल्ड', 'न्यूज़क्लिक' जैसे
प्रतिष्ठित मीडिया संस्थानों

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