बकरीद, कुर्बानी और आरएसएस का नैरेटिव: एक तर्कसंगत पड़ताल
हर साल बकरीद के आसपास कुछ खास किस्म का विमर्श समाज में ज़रूर उठता है — और वह है कुर्बानी की प्रथा को लेकर विरोध। इस विरोध की आड़ में जिस तरह से मुसलमान समुदाय को निशाना बनाया जाता है, वह आज न सिर्फ धार्मिक असहिष्णुता का परिचायक है, बल्कि एक गहरी राजनीतिक रणनीति का हिस्सा भी है।
इस पूरे विमर्श को समझने के लिए हमें इतिहास, संस्कृति और तथ्यों के धरातल पर उतरना होगा — और यही हम इस लेख में करने की कोशिश कर रहे हैं।
कुर्बानी का इतिहास और धार्मिक संदर्भ
बकरीद पर जानवरों की कुर्बानी इस्लाम की एक आध्यात्मिक परंपरा है, जो पैगंबर इब्राहीम की उस कथा से जुड़ी है, जिसमें उन्होंने अपने सबसे प्रिय पुत्र को अल्लाह के नाम पर कुर्बान करने की इच्छा जताई थी। उस भावना की स्मृति में आज जानवर की कुर्बानी दी जाती है, और उसका मांस समाज में ज़रूरतमंदों के बीच बांटा जाता है।
यानी यह केवल भोजन का मामला नहीं, एक सामूहिक सहभागिता की परंपरा है।
मांसाहार बनाम अहिंसा का नैरेटिव
आज जो नैरेटिव बनाया जा रहा है — कि कुर्बानी “क्रूरता” है, “हिंसा” है — वह धार्मिक परंपराओं की आड़ में राजनीतिक ध्रुवीकरण की कोशिश है। भारत एक बहुधार्मिक देश है और यहां सिर्फ मुसलमान ही नहीं, कई हिंदू जातियों में भी बलि की परंपरा रही है।
उदाहरण:
- लोनावला के पास एक बीरा देवी मंदिर में आज भी मुर्गी की बलि दी जाती है।
- असम, ओडिशा, झारखंड, बंगाल जैसे राज्यों में कई देवी मंदिरों में पशु बलि एक परंपरा है, जिसे धार्मिक स्वीकृति प्राप्त है।
फिर सिर्फ मुसलमानों की कुर्बानी पर ही इतना शोर क्यों?
भारत और मीट इंडस्ट्री: एक खुली सच्चाई
भारत न केवल विश्व का एक प्रमुख मीट निर्यातक है, बल्कि देश की मीट इंडस्ट्री में प्रमुख हिस्सेदारी गैर-मुस्लिम समुदायों की भी है।
तथ्य:
- भारत के मीट निर्यातकों में कई हिंदू और जैन व्यापारी अग्रणी हैं।
- उदाहरण के तौर पर, सुनील सूद, सरदारवाल ब्रदर्स जैसी कंपनियां — नाम कुछ इस तरह रखे जाते हैं कि लगे ये मुस्लिम कंपनियां हैं, जबकि हकीकत कुछ और है।
क्या मुनाफे की खातिर मीट बेचना हिंसा नहीं, लेकिन धार्मिक परंपरा निभाना हिंसा है?
खाद्य अधिकार और संविधान
भारत का संविधान हर नागरिक को अपनी पसंद का भोजन चुनने की आज़ादी देता है। खाद्य विविधता, आस्था और परंपराएं भारत की ताकत रही हैं, लेकिन आज उन्हें सांप्रदायिक एजेंडे के तहत हथियार की तरह इस्तेमाल किया जा रहा है।
क्या हमें दूसरों के खाने-पीने के तरीकों का सम्मान नहीं करना चाहिए? क्या हम यह भूल रहे हैं कि आस्था और आज़ादी दोनों साथ-साथ चलती हैं?
आरएसएस का एजेंडा और नफरत का विस्तार
बकरीद की कुर्बानी को लेकर चलाया जाने वाला नैरेटिव सिर्फ जानवरों की हत्या की बहस नहीं है, बल्कि मुसलमानों को बार-बार एक क्रूर और असंवेदनशील समुदाय के रूप में पेश करने की राजनीतिक कोशिश है।
इसलिए यह ज़रूरी है कि हम इन सवालों से न भागें:
- क्या बलि की परंपरा सिर्फ मुसलमानों की है?
- क्या यह सिर्फ धार्मिक क्रूरता है या सामूहिक सहभागिता की ऐतिहासिक परंपरा?
- क्या मीट इंडस्ट्री की सच्चाई सबके सामने नहीं है?
- क्या यह विवाद आरएसएस और हिंदुत्व की राजनीति का एक हिस्सा नहीं है?
निष्कर्ष: क्या हमें खाने के अधिकार की रक्षा नहीं करनी चाहिए?
भारत की विविधता उसकी ताकत है, और उसे बनाये रखने के लिए ज़रूरी है कि हम दूसरों की धार्मिक परंपराओं, खाद्य संस्कृतियों और जीवन शैलियों का सम्मान करें।
कुर्बानी हो या प्रसाद — हर धार्मिक रिवाज में किसी समुदाय की आत्मा और आस्था होती है।
उसे नफ़रत के चश्मे से नहीं देखा जाना चाहिए।