मद्रास हाई कोर्ट का ऐतिहासिक फ़ैसला
भारत में LGBTQIA+ समुदाय के अधिकारों को लेकर एक ऐतिहासिक पहल करते हुए मद्रास हाई कोर्ट ने यह साफ़ कर दिया है कि समलैंगिक व्यक्तियों को परिवार बनाने का मौलिक अधिकार प्राप्त है। यह फ़ैसला LGBTQIA+ न्यायशास्त्र में ‘चुने हुए परिवार’ (Chosen Family) की अवधारणा को स्वीकार करता है और वर्तमान भारतीय सामाजिक संरचनाओं को एक नई संवैधानिक दृष्टि से देखने की ज़रूरत को रेखांकित करता है।
पृष्ठभूमि: केंद्र सरकार का विरोध और सुप्रीम कोर्ट का रुख
भारत में समलैंगिक विवाह को अब भी कानूनी मान्यता नहीं मिली है। सुप्रीम कोर्ट ने 2023 में सुप्रिया चक्रवर्ती बनाम भारत सरकार जैसे मामलों में समलैंगिक विवाह को मंज़ूरी देने से इनकार कर दिया था।
केंद्र की मोदी सरकार ने अदालत में हलफ़नामा देकर कहा था कि समान-लैंगिक विवाह “भारतीय पारिवारिक ढांचे” और “धार्मिक-सामाजिक मूल्यों” के अनुकूल नहीं हैं। सरकार ने साफ़ कहा था कि विवाह कानून बनाना संसद का विषय है, अदालत का नहीं।
क्या कहा मद्रास हाई कोर्ट ने?
लेकिन अब मद्रास हाई कोर्ट की न्यायमूर्ति जी.आर. स्वामीनाथन और न्यायमूर्ति वी. लक्ष्मीनारायणन की पीठ ने एक अहम फ़ैसला सुनाते हुए कहा कि:
“विवाह ही परिवार बनाने का एकमात्र रास्ता नहीं है। Chosen Family की अवधारणा LGBTQIA+ न्यायशास्त्र में मान्य और स्वीकार्य है।”
यह फ़ैसला एक 25 वर्षीय समलैंगिक महिला के मामले पर आधारित था, जिसे उसके अपने परिवार ने उसकी इच्छा के खिलाफ हिरासत में रखा था। अदालत ने उस महिला को अपनी साथी के साथ रहने की अनुमति दी और पुलिस को सुरक्षा प्रदान करने का आदेश दिया।
अनुच्छेद 21 और LGBTQIA+ के अधिकार
अदालत ने अपने निर्णय में साफ़ कहा कि:
- किसी भी व्यक्ति की यौनिक पहचान (sexual orientation) उसकी व्यक्तिगत स्वतंत्रता का हिस्सा है।
- और यह भारतीय संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत संरक्षित है, जो जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अधिकार देता है।
परिवार का अधिकार और गोद लेने का प्रश्न
हालांकि कोर्ट ने स्पष्ट नहीं किया कि गोद लेने का अधिकार इस परिवार बनाने के अधिकार में शामिल है या नहीं, लेकिन यह दरवाज़ा पूरी तरह बंद भी नहीं किया गया है।
फिलहाल भारत में गोद लेने के कानून LGBTQIA+ कपल्स को संयुक्त रूप से बच्चा गोद लेने की अनुमति नहीं देते। लेकिन इस फैसले के बाद यह बहस फिर से ज़ोर पकड़ सकती है कि क्या समान अधिकारों की ओर बढ़ते भारत में यह व्यवस्था बदलेगी?
लीला सेठ का उल्लेख और सामाजिक सन्देश
कोर्ट ने दिवंगत न्यायमूर्ति लीला सेठ का उदाहरण देते हुए कहा कि उन्होंने अपने समलैंगिक बेटे का जिस तरह समर्थन किया था, वह सभी माता-पिता के लिए एक मिसाल है। लेकिन यह भी जोड़ा कि हर परिवार ऐसा नहीं होता — और यही वजह है कि कानून को ऐसे मामलों में सुरक्षा और संवेदनशीलता दोनों प्रदान करनी होगी।
✅ निष्कर्ष:
मद्रास हाई कोर्ट का यह फ़ैसला LGBTQIA+ अधिकारों की दिशा में एक ऐतिहासिक क़दम है। यह न सिर्फ परिवार की परिभाषा को विस्तृत करता है, बल्कि यह भी बताता है कि संविधान की नज़र में समानता और स्वतंत्रता का अधिकार केवल कुछ लोगों के लिए नहीं, सभी के लिए है।