Climate activist ग्रेटा थनबर्ग का समुद्री रास्ते मदद पहुंचाने वाले मिशन पर Israel हमला करेगा क्या
दुनिया की 8.2 अरब आबादी आज दो तस्वीरों के बीच खड़ी है। एक तस्वीर है — 22 वर्षीय क्लाइमेट जस्टिस एक्टिविस्ट ग्रेटा थनबर्ग की, और दूसरी — गाज़ा में इस्राइली बमबारी के मलबे से जीवित निकाले गए एक नवजात शिशु की।
एक ओर इंसाफ और उम्मीद की प्रतीक, दूसरी ओर बर्बरता और जेनोसाइड का साक्षात प्रमाण। और इन्हीं दो तस्वीरों के बीच तय होगा कि मानवता और सभ्यता का भविष्य क्या होगा।
ग्रेटा थनबर्ग: जान की बाज़ी लगा कर जेनोसाइड के ख़िलाफ़
स्वीडन की ग्रेटा थनबर्ग 11 अन्य कार्यकर्ताओं के साथ Freedom Flotilla नाम के मिशन पर निकली हैं — समुद्री रास्ते से गाज़ा पहुंचने की एक लगभग असंभव कोशिश। वे इटली के सिसली से ‘मैडलीन’ नामक जहाज़ पर सवार होकर निकली हैं, जिसमें जीवनरक्षक दवाइयाँ, पानी को शुद्ध करने की किट, बैसाखियाँ और बच्चों के कृत्रिम अंग लदे हैं।
उनका मिशन है — इस्राइल द्वारा थोपे गए समुद्री और ज़मीनी नाकेबंदी को शांति से चुनौती देना और दुनिया का ध्यान गाज़ा में हो रहे लाइव जेनोसाइड की ओर खींचना।
गाज़ा में मौत का रोज़ का उत्सव
19 महीने से गाज़ा में जो हो रहा है वह सिर्फ एक युद्ध नहीं, एक प्रसारित जनसंहार (Live-Streamed Genocide) है। अस्पताल, स्कूल, शरणस्थल — सब इस्राइली मिसाइलों के निशाने पर हैं। बच्चों के अंग उड़ रहे हैं, लाखों भूख से मरने की कगार पर हैं। और शायद सबसे भयानक बात यह है कि दुनिया खामोश है।
अमेरिका और इस्राइल: एक जेनोसाइड की साझीदारियाँ
इस्राइली कार्रवाई को खुली शह मिल रही है अमेरिका से। ट्रम्प प्रशासन, जो खुद को दुनिया का ‘संयमक’ कहता है, फिलिस्तीनियों के लिए मौन समर्थन में सबसे आगे है। यही ट्रम्प जब भारत-पाकिस्तान के युद्ध विराम का दावा करते हैं, तो गाज़ा में हो रहे नरसंहार पर चुप क्यों हैं?
फिलिस्तीनी पत्रकार रुला जबरियल ने तीखा सवाल उठाया — यह कत्लेआम शब्दों से शुरू हुआ, जहां फिलिस्तीनियों को अमानवीय करार दिया गया, और अंत में उन्हें सामूहिक रूप से क्रिमिनल बना दिया गया। जब आप एक समुदाय को अपराधी साबित कर देते हैं, तो दुनिया को उनकी हत्या को न्यायसंगत बताना आसान हो जाता है।
अमेरिकी मीडिया: रेडियो रवांडा से भी नीचे
रुला जबरियल के शब्दों में — “अमेरिकी मीडिया इस वक़्त रेडियो रवांडा से भी गया-बीता है।” वह न सिर्फ इस नरसंहार को नजरअंदाज कर रहा है, बल्कि जनसाइड को जस्टीफाई कर रहा है। इस चुप्पी ने ही ग्रेटा जैसे नौजवानों को मजबूर किया कि वे जान पर खेलकर आवाज़ उठाएं।
ग्रेटा: एक आशा की मशाल
15 वर्ष की उम्र में क्लाइमेट आंदोलन शुरू करने वाली ग्रेटा अब जनसाइड के खिलाफ सीधी लड़ाई में हैं। वह कहती हैं, “बतौर इंसान, यह मेरा कर्तव्य है कि जहां अन्याय हो, वहां बोलूं।”
इससे पहले मई 2025 में इसी तरह की एक कोशिश पर इस्राइली ड्रोन हमला हो चुका है। अब जबकि ग्रेटा फिर से समंदर में उतरी हैं, सोशल मीडिया पर उन्हें निशाना बनाने की मुहिमें भी चल रही हैं — कोई कहता है “उसे शार्क खा जाए”, तो कोई “बम से उड़ा देना चाहिए” कहता है। लेकिन दूसरी ओर लाखों लोग उसके साथ खड़े भी हैं।
भारत की चुप्पी: नोबेल शांति पुरस्कार और नोबेल खामोशी
जब भारत के कैलाश सत्यार्थी को बच्चों के लिए काम करने पर नोबेल मिला, तो पूरा देश गर्व से भर गया। लेकिन क्या आज किसी प्रमुख भारतीय आवाज़ ने फिलिस्तीनी बच्चों के पक्ष में एक शब्द भी कहा है? नज़र डालिए — चुप्पी, शून्य, मौन।
नौम चॉम्स्की की चेतावनी: उम्मीद ही लड़ाई है
लेख के अंत में ग्रेटा और उस नवजात शिशु को देखकर नोम चॉम्स्की के शब्द याद आते हैं:
“अगर तुम यह मान लोगे कि कोई उम्मीद नहीं है, तो तुम यह सुनिश्चित कर रहे हो कि कोई उम्मीद नहीं होगी।”
यही आशा की डोर, यही लड़ाई, और यही मिशन है — गाज़ा की ओर बढ़ता हुआ वो छोटा-सा जहाज़ — और दुनिया भर में जागती हुई ह्यूमनिटी।