मनुवादी सोच है राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की, इसलिए यहां महिलाओं की शुरू से रही नो इंट्री
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS) एक ऐसा संगठन है जिसे पुरुष-प्रधान ही नहीं, बल्कि पूरी तरह पुरुषों के लिए ही डिज़ाइन किया गया संगठन कहा जा सकता है। इसकी संस्थागत संरचना और विचारधारा में महिलाओं के लिए कोई जगह नहीं रही — और जो न्यूनतम स्थान है, वह भी महिला स्वायत्तता को दरकिनार करता है।
“स्वयंसेवक” नहीं, सिर्फ “सेविका”
RSS के नाम में स्वयंसेवक शब्द शामिल है — एक ऐसा शब्द जो स्वायत्तता और सक्रिय भागीदारी का प्रतीक है। लेकिन जब महिलाओं के लिए संगठन बनाया गया तो उसका नाम रखा गया “राष्ट्र सेविका समिति”, जहाँ “स्वयं” की जगह सिर्फ “सेविका” रह गया। यह नाम ही इस सोच को उजागर करता है कि महिलाओं की भूमिका स्वतंत्र नहीं, बल्कि परोक्ष और सीमित मानी गई है।
जब लक्ष्मीबाई केलकर ने मांगी थी सदस्यता
1936 में लक्ष्मीबाई केलकर ने डॉ. हेडगेवार से RSS में शामिल होने की इच्छा जताई थी। उन्होंने कहा कि वे लाठी चलाना सीखना चाहती हैं और संगठन में सक्रिय भागीदारी निभाना चाहती हैं। लेकिन उनके लिए अलग महिला शाखा बनाई गई — “राष्ट्र सेविका समिति”, जिसमें स्वायत्तता की नहीं, सेवा की भावना थोप दी गई।
संघ की विचारधारा में स्त्री की जगह
RSS और उससे जुड़े संगठनों की महिलाओं को लेकर सोच साफ है — स्त्रियों का “प्राथमिक स्थान” घर की चारदीवारी के भीतर है। संघ प्रमुख मोहन भागवत समेत कई वरिष्ठ पदाधिकारी बार-बार इस सोच को सार्वजनिक रूप से दोहराते आए हैं। उनके अनुसार, महिला का कार्य बच्चों को अच्छे संस्कार देना और परिवार का ध्यान रखना है।
विचारधारा का विस्तार और प्रभाव
यह सोच केवल संघ तक सीमित नहीं है। 1980 के दशक में जब राजस्थान में रूप कंवर का सती कांड हुआ, तब भाजपा उपाध्यक्ष विजया राजे सिंधिया ने सती प्रथा के खिलाफ कानून बनाने को “भारतीय परंपरा के खिलाफ” बताया। इसी तरह सेवी पत्रिका को दिए एक इंटरव्यू में मृदुला सिन्हा (बाद में गोवा की राज्यपाल) ने कहा कि स्त्रियों का काम घर संभालना और पति की सेवा करना है। उन्होंने यह भी जोड़ा कि उन्होंने खुद दहेज लिया और दिया — और लड़कियों को ऐसे ही संस्कार मिलने चाहिए।
प्रशिक्षण और नियंत्रण की व्यवस्था
राष्ट्र सेविका समिति में स्त्रियों को लाठी, समूह अनुशासन, और “संस्कारी” जीवनशैली की ट्रेनिंग दी जाती है। कई महिलाएं आज राजनीति और समाज के मंच पर दिखाई देती हैं, लेकिन निर्णय लेने वाली भूमिकाओं में उनकी उपस्थिति नहीं के बराबर है। यानी, उन्हें दृश्य तो बनाया गया, लेकिन निर्णायक शक्ति नहीं दी गई।
मनुस्मृति की ओर वापसी?
RSS की विचारधारा अक्सर मनुस्मृति के मूल्यों की ओर लौटने की वकालत करती है — वे मूल्य जिनमें महिलाओं की भूमिका को सीमित और नियंत्रित कर रखा गया था। आज़ादी के आंदोलन के साथ जो सामाजिक बदलाव आए थे, संघ का प्रयास है उन्हें पलटना। पितृसत्तात्मक, जातिवादी ढांचे को फिर से स्थापित करने की यह कोशिश महिलाओं पर बढ़ते अत्याचारों और असमानता की जड़ बनती जा रही है।