Home » समाज-संस्कृति » RSS : हमेशा कई मुंह से बोलना और दूसरों के कंधे पर बंदूक़ चलाना
RSS News Today: बेबाक भाषा के इस ख़ास कार्यक्रम POINT TO POINT में बात RSS की. RSS यानी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को कम आंकना और ज़रूरत से ज़्यादा आंकना दोनों ही सही नहीं है। क्यों! देखिए वरिष्ठ पत्रकार मुकुल सरल की ख़ास पेशकश.

RSS यानी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को कम आंकना और ज़रूरत से ज़्यादा आंकना दोनों ही सही नहीं है। हमारा समाज ख़ासतौर पर राजनीतिक विश्लेषक हमेशा यही ग़लती करते हैं। 

मैंने RSS को काफ़ी क़रीब से देखा है। हिंदू महासभा को भी और अन्य हिंदुत्ववादियों को भी। सन् 1990 से तो मैं यह सब खुली आंखों से देख रहा हूं। 90 के दशक में जब राम मंदिर आंदोलन उफान पर था जिसकी वजह से बीजेपी का उभार हुआ, उस समय मैं भी इसी विचारधारा की चपेट में था। मेरे तमाम दोस्त-रिश्तेदार तो आज भी इसकी चपेट में हैं। पहले से भी ज़्यादा।

यह बताने में मुझे कोई गुरेज़ नहीं कि 16-17 की उम्र में मैं भी बीजेपी का समर्थक था और मैंने अपने घर में अटल-आडवाणी की बड़ी सी तस्वीर लगाई थी। 30 अक्टूबर सन् 1990 को मेरे शहर बिजनौर में हुआ दंगा आज भी मेरी यादों में एक ज़ख़्म की तरह ताज़ा है। 

इसलिए यह मेरे निजी अनुभव हैं जो मैं आप सबसे साझा कर रहा हूं।

यह सच है कि नौजवानी में बीजेपी समर्थक होने के बाद भी RSS-वीएचपी-बीजेपी के मंदिर को लेकर चलाए गए उग्र अभियानों के दौर में भी मुझे मुसलमानों से कभी नफ़रत नहीं रही, लेकिन हां, उस दौर में मेरे दिमाग़ में भी यह बात ज़रूर थी कि राम का मंदिर अयोध्या में नहीं बनेगा तो कहां बनेगा? वो तो बाद में पता चला कि अयोध्या में तो राम के अनगिनत मंदिर हैं और हर दूसरे मंदिर का पुजारी यही दावा करता है कि राम का जन्म यहीं हुआ था, जहां यह मंदिर है। फिर एक पुरानी बाबरी मस्जिद के तीन गुंबदों के नीचे ही राम के जन्म का दावा और ज़िद क्यों थी यह बाद में समझ आया। समझ आया कि मुसलमानों के ख़िलाफ़ कैसे माहौल बनाया गया। कैसे मंडल के आगे कमंडल किया गया। कैसे आरक्षण विरोधी आंदोलन को हवा दी गई, पीछे से समर्थन दिया गया। 

समझ आया कि कैसे RSS-BJP वालों ने हम जैसे नौजवानों का इस्तेमाल किया। कैसे जुलूस जलसों में नौजवान लड़कों और उनमें भी पिछड़े-दलितों को लड़ने-मरने के लिए आगे किया जाता है, उकसाया जाता है और किस तरह हंगामा बढ़ने या हिंसा होने पर बीजेपी के नेता और स्वयंसेवक मौके से ग़ायब हो जाते हैं। 

बाबरी मस्जिद के ख़िलाफ़ आंदोलन के दौरान भी जितने कारसेवक मारे गए, उनकी लिस्ट उठाकर देख लीजिए। उनमें कितने संघ और बीजेपी के नेता और शीर्ष पंक्ति के स्वयंसेवक मिलेंगे। शायद एक भी नहीं।

मैं जानता हूं कि RSS-BJP के यजमान यानी फंडर कौन हैं। उच्चजाति के धन्नासेठों के साथ एक बड़ा मध्यवर्ग। मैं जानता हूं कि किस तरह धार्मिक आयोजनों जिसमें भजन, कीर्तन, देवी जागरण, भागवत कथा, शोभा यात्रा, कलश यात्रा सभी शामिल हैं के जरिये हिंदुओं को अपने आर्थिक और राजनीतिक मकसद के लिए गोलबंद किया जाता है। दशहरा मेला, दिवाली मेला, होली मिलन के साथ तमाम तीज-त्योहार, जयंती समारोह और मठ-मंदिरों को भी हिंदू हित के नाम पर इस्तेमाल किया जा रहा है। इसलिए यह तो सच है कि RSS का दायरा बहुत व्यापक और हिंदू समाज में पैंठ बहुत गहरी है। भले ही यह अलग-अलग नाम और काम के जरिये है।

आप जानते ही हैं कि RSS ने देश-धर्म के नाम पर कितने और कैसे संगठन बनाए हैं। लेकिन मैं यह भी जानता हूं कि कैसे मेरे शहर में हवन-कीर्तन और जुलूस के नाम पर दंगा भड़काया गया। कैसे एक बैंड वाले के नाम से मशहूर ‘राम का चौराहा’…’श्रीराम का चौराहा’ बन गया। 

इसलिए मैं कहता हूं कि RSS हमेशा कई मुंह से बोलता है और दूसरों के कंधे पर बूंदक़ चलाता है। आपको यक़ीन न हो तो आज भी RSS वालों से पूछ के देख लीजिए वे साफ़ इंकार करेंगे कि भारतीय जनता पार्टी उनका राजनीतिक संगठन है। जो बात पूरी दुनिया जानती है, उसी बात को मानने से संघी इंकार कर देंगे। कहेंगे कि RSS एक सांस्कृतिक संगठन है और उसका राजनीति से कोई लेना देना नहीं। जबकि RSS ही बीजेपी (पूर्व में जनसंघ) का पितृ संगठन है। और अटल-आडवाणी से लेकर हमारे वर्तमान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी उसके घोषित सदस्य और प्रचारक रहे हैं। 

यही दोमुंहा पन है। यही झूठ है। यही उनकी राजनीति है। वर्ण व्यवस्था का समर्थन करेंगे और फिर नारा देंगे हिंदू एक हो। हिंदू एक हो… कहेंगे और दलित-आदिवासियों के साथ भेदभाव करेंगे, हरियाणा चुनाव में बीजेपी के लिए 35 बनाम एक बिरादरी की राजनीति खेलेंगे।  

जाति बनाए रखना चाहते हैं और जाति जनगणना का विरोध करेंगे। आरक्षण और संविधान पर कई मुंह से कई तरह की बातें बोलेंगे। 

हालांकि संघ के स्वयंसेवक आपको हमेशा शांत और विनम्र स्वभाव के मिलेंगे। बेहद मिलनसार। आपके दुख-सुख में भी साथ आ सकते हैं। आपसे बहुत प्यार से मीठी-मीठी बातें करेंगे। हर बात में देश-धर्म की दुहाई देंगे लेकिन आप जान ही नहीं पाएंगे कि कब आपके भीतर दूसरे धर्म-जाति के प्रति नफ़रत का ज़हर भर दिया गया है। एक डर, गुस्सा और हिंसा भर दी गई है।

RSS का ज़िक्र यूं तो बार-बार होता है, उसके पक्ष और विरोध में तमाम किताबें हैं। तमाम बौद्धिकों ने लिखा है, आम भाषा में इसका ज़िक्र इसलिए क्योंकि रह-रह के RSS चर्चा में आ ही जाता है। चुनाव के दौरान उसकी भूमिका की चर्चा और तेज़ हो जाती है। हालांकि यह काम बड़ी बारीकी और चालाकी से किया जाता है। यानी चुनाव से पहले कम और चुनाव परिणाम आने के बाद ज़्यादा। जैसे हरियाणा चुनाव में बीजेपी की जीत हो गई तो बहुत तेज़ी से ख़बरें और एक्सक्लूसिव इंटरव्यू आने लगे कि किस तरह RSS ने बीजेपी की हार को जीत में बदल दिया। कैसे घर-घर संपर्क किया। कैसे नाराज़ लोगों को मनाया…आदि–आदि। 

इसी तरह लोकसभा चुनाव में बीजेपी बहुमत से दूर रह गई तो चर्चा फैलाई गई कि इस बार RSS ने हाथ खींच लिए थे। बीजेपी अध्यक्ष जेपी नड्डा के बयान की चर्चा होने लगी कि कैसे उन्होंने आत्मघाती बयान दिया कि अब बीजेपी RSS से बड़ी हो गई है और बीजेपी को अब RSS की ज़रूरत नहीं। चुनाव बाद RSS प्रमुख मोहन भागवत भी बयान देने लगे कि कुछ लोग अहंकार में अपने आप को महामानव या देवता समझने लगते हैं। 

यानी हर सूरत में RSS की छवि बनाए रखी जाती है कि उसी की वजह से बीजेपी की हार और जीत है। हालांकि इसमें ग़लत कुछ नहीं, बीजेपी का अस्तित्व RSS की वजह से है, लेकिन यह झूठ है कि आम चुनाव में RSS ने बीजेपी के लिए मेहनत नहीं की। RSS ने उतनी ही मेहनत की थी जितनी वह हमेशा करता रहा है। लेकिन जनविरोधी नीतियों, महंगाई, बेरोज़गारी और संविधान विरोधी दिए गए बयानों के चलते रिजल्ट मनमुताबिक न आने पर RSS को अलहदा बताया जाता है ताकि राजनीति और समाज में RSS का रुतबा या हौवा बना रहे। यानी चित भी मेरी, पट भी मेरी।   

इसलिए हम कहते हैं कि RSS को न कम आंकिए… न ज़रूरत से ज़्यादा। 

कम तो इसलिए भी नहीं आंका जाना चाहिए क्योंकि इस समय उसके पास बीजेपी की मार्फ़त राजनीतिक सत्ता है। वह भारतीय समाज का सांप्रदायिकता के आधार पर बंटवारा करने में काफ़ी हद तक कामयाब हो चुका है। अपनी 100 साल की राजनीति के तहत वह लोकतंत्र के चारों स्तंभ विधायिका, कार्यपालिका, न्यायपालिका और मीडिया में बड़े पैमाने पर घुसपैठ कर चुका है। पुलिस-प्रशासन बुरी तरह सांप्रदायिक हो चुका है। जब संघी या हिन्दुत्ववादी यह नारा लगाएं कि यह अंदर की बात है–पुलिस हमारे साथ है तो आप इसे झूठ मत समझिएगा। पीएसी तो हमेशा उनके साथ रही ही है। 

यही नहीं संघ शिक्षा व्यवस्था में बड़े स्तर पर बदलाव करा रहा है। इस सबके चलते नफ़रत की राजनीति बेहद तेज़ हो चुकी है। 

प्रगतिशील बौद्धिक कहते रहे हैं कि RSS से आगे बहुत सावधान रहने की ज़रूरत है, लेकिन मेरे एक संपादक कहते थे कि RSS से आगे ही नहीं पीछे भी सावधान रहने की ज़रूरत है। अब इस बात का उनके लिए क्या अर्थ था, वह किस नैतिकता और ख़तरे की बात कर रहे थे वही जानें, लेकिन मेरी समझ यही आया है कि RSS देश का भविष्य बदलने के लिए पीछे जाकर इतिहास भी बदलना चाहती है। 

RSS की बड़ाई तो बहुत हो गई, अब उसकी कमज़ोरी पर भी बात कर ली जाए। इसलिए ही कहा कि RSS को ज़रूरत से ज़्यादा आंकना या तरज़ीह देना भी सही नहीं है, क्योंकि लगभग सौ साल की हिंदुत्व की राजनीति के बाद भी भारतीय समाज का बड़ा हिस्सा अभी भी भारत के धर्मनिरपेक्ष मूल्यों में विश्वास रखता है। लगातार उसकी नफ़रत की राजनीति से लोहा ले रहा है। विशिष्ट जन की बजाय बहुजन की राजनीति में विश्वास रखता है। यही वजह है कि बाबरी मस्जिद विध्वंस के बरसों बाद तक बीजेपी यूपी की सत्ता में वापस नहीं आ पाई। तमाम साम-दाम-दंड-भेद के बाद भी इस बार के लोकसभा चुनाव में भाजपा… नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में बहुमत से दूर रह गई। एक बार फिर लोकतंत्र और संविधान बचाने का सवाल प्रमुख सवाल बन गया है। यही वो कोर मुद्दा था जिसने बीजेपी को 400 पार की बजाए 240 पर धकेल दिया। बहुमत से दूर।

राष्ट्रीय स्तर पर वोट शेयर का हिसाब भी देखें तो बीजेपी के पास क़रीब 37 प्रतिशत ही वोट है। बीजेपी गठबंधन यानी एनडीए का वोट प्रतिशत भी देखें तो 42-43 फ़ीसदी से ज़्यादा नहीं होता। यानी अभी भी आप कह सकते हैं कि 57-58 फ़ीसदी वोट या जनता बीजेपी या उसके सहयोगियों के साथ नहीं है। और यह तो कुल पड़े वोटों का प्रतिशत है। देश की आधी आबादी तो वोट देती ही नहीं। 

2024 के आम चुनाव में भी क़रीब 65 प्रतिशत वोट पड़े। यानी 35 फ़ीसदी ने तो वोट दिया ही नहीं। और इसके अलावा 18 से कम आयु वाली आबादी को तो वोट देने का अधिकार ही नहीं है। इस तरह देखा जाए तो संसदीय लोकतंत्र में हमेशा अल्पमत की सरकार बहुमत पर शासन करती है और उनके लिए नीतियां बनाती है। 

बीजेपी को सबसे ज़्यादा नुक़सान भी उसी हिंदी पट्टी यानी यूपी समेत तमाम उत्तर भारत के राज्यों में हुआ है जो उसका बेस मानी जाती है। 

इसी के साथ अभी भी देश के बड़े हिस्से में गैर भाजपाई सरकारें हैं। दक्षिण भारत तो अभी भी उसके लिए मुश्किल टास्क बना हुआ है। हाल में ही उत्तर भारत के दो राज्यों हरियाणा और जम्मू-कश्मीर के चुनाव में भाजपा हरियाणा ज़रूर बचा ले गई लेकिन जम्मू-कश्मीर में उसकी दाल नहीं गली। 

लोकसभा चुनाव में अकेले फ़ैज़ाबाद यानी अयोध्या सीट पर भाजपा की हार यह संदेश देने में कामयाब रही कि अभी उम्मीद बाक़ी है। यह वही अयोध्या है जिसके बलबूते भाजपा RSS के संरक्षण में 1990 के दशक से संसदीय राजनीति में बढ़त बना रही थी। यह वही अयोध्या है जहां राम मंदिर बनने का श्रेय लेते हुए भाजपा ने लोकसभा चुनाव में प्रचार का आगाज़ किया। लेकिन उसी अयोध्या ने उसे नकार दिया। यह भाजपा और RSS दोनों के लिए करारा झटका था। शायद यही वजह है तकनीकी कारण बताकर अयोध्या की मिल्कीपुर सीट का उपचुनाव, अन्य 9 सीटों पर हुए उपचुनाव के साथ नहीं कराया गया। मोदी जी भी अपनी बनारस की सीट पर कोई कमाल नहीं कर पाए। दो बार की तीन-चार लाख की लीड घटकर 2024 में महज़ डेढ़ लाख के आसपास रह गई।

यही वजह है कि संघ प्रमुख मोहन भागवत अपने विजयदशमी के संबोधन में दुर्बलता को अपराध बताते हुए हिन्दुओं के एकजुट और सशक्त होने की का आह्वान करते हैं। योगी आदित्यनाथ भी बयान देते हैं कि बंटेंगे तो कटेंगे…और एक बार फिर सांप्रदायिकता आंधी चलाने की तैयारी की गई। इसका एक उदाहरण उस दौरान हुई बहराइच की हिंसा है। 

RSS का इतिहास-भूगोल

RSS की कार्यशैली के बारे में आप काफ़ी कुछ जानते होंगे। फिर भी आइए मोटे तौर पर उसका इतिहास-भूगोल टटोल लेते हैं। 

सांस्कृतिक संगठन के नाम पर RSS यानी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना नागपुर में सन् 1925 में विजयदशमी के दिन हुई। इसलिए 2025 में उसके सौ साल पूरे होने जा रहे हैं। 

नागपुर के केशव बलिराम हेडगेवार ने इसकी स्थापना की जो पहले कुछ समय के लिए कांग्रेस में थे। लेकिन बहुत जल्द ही उन्होंने अपनी अलग राह ली। और हिन्दुत्व या हिंदू राष्ट्रवाद की राजनीति शुरू की।

यहां आपको साफ़ तौर पर बता दूं कि हिंदू धर्म और हिन्दुत्व दो बिल्कुल अलग-अलग अवधारणा हैं। हिंदू जिसे अब एक बार फिर सनातन कहने पर ज़ोर दिया जा रहा है, एक धर्म, एक रास्ते, एक जीवन पद्धति के तौर पर देखा जाता है जबकि हिन्दुत्व या हिंदुत्ववादी,एक विशुद्ध राजनीतिक विचारधारा है। हिंदू धर्म से इसका कोई लेना-देना नहीं हैं। इसलिए जो हिंदू है वो संघी है या भाजपाई है, यह कहना बिल्कुल ग़लत है। विपक्ष के सारे बड़े नेता हिंदू ही हैं।

आसान शब्दों में कहें तो गांधी जी हिंदू हैं और नाथूराम गोडसे हिंदुत्ववादी।

नाथूराम गोडसे आज़ाद भारत का वह पहला आतंकी है जिसने राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की गोली मारकर हत्या की थी और जिसके बाद तत्कालीन गृहमंत्री सरदार पटेल ने आरएसएस पर बैन भी लगाया था। यह वही सरदार पटेल हैं जिन्हें बीजेपी आजकल अपना आदर्श बताती है, मोदी जी ने जिनकी गुजरात में सबसे बड़ी मूर्ती बनवाई है। वही सरदार पटेल RSS की गतिविधियों को देश के लिए अच्छा नहीं मानते थे। 

बैन के बाद जब जनसंघ के संस्थापक श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने जुलाई 1948 में  सरदार पटेल को चिट्ठी लिखकर आरएसएस से प्रतिबंध हटाने की मांग की तो सरदार पटेल ने जवाब दिया था कि भले ही गांधी जी हत्या में संघ का सीधा हाथ नहीं था लेकिन संघ के कारण ऐसा माहौल बना जिससे गांधी जी की हत्या हुई। पटेल ने आगे लिखा कि संघ की गतिविधियां सरकार और राज्य के अस्तित्व के लिए जोखिम भरी थीं।  

  तो हिन्दुत्व या कोई भी दक्षिणपंथी विचार ऐसा ही ख़तरा पैदा करता है। जिसे हम फ़ासीवाद या नाज़ीवाद के ज़रिये समझ सकते हैं–

जिसमें रक्त की शुद्धता, नस्ल की श्रेष्ठता आदि पर ज़ोर दिया जाता है, अपनी जाति पर झूठा गौरव या अभिमान जगाया जाता है और दूसरे धर्म समुदायों को Other यानी अन्य की श्रेणी में डालकर उन्हें ही देश और समाज की सारी समस्याओं के लिए ज़िम्मेदार ठहराया जाता है। राष्ट्रवाद इसका मुखौटा होता है, जिसका मक़सद राजनीतिक सत्ता हासिल करना होता है। 

जानकार लिखते रहे हैं कि RSS की पूरी राजनीति, पूरी फिलॉसफी, पूरी विचारधारा हिटलर के नाज़ीवाद से ही प्रभावित है। 

दिल्ली यूनिवर्सिटी में राजनीतिक विज्ञान के प्रोफ़ेसर रहे शम्सुल इस्लाम ने RSS पर काफी काम किया है। उनके मुताबिक़ “संघ और फ़ासीवाद-नाज़ीवाद के बीच पुराने रिश्ते रहे हैं।”

हिटलर भी ख़ुद को आर्य कहता था और यहूदियों से नफ़रत करता था। जैसे हिन्दुत्ववादी मुसलमानों और ईसाइयों से नफ़रत करते हैं। RSS के दूसरे सरसंघ चालक एमएस गोलवलकर ने तो बाक़ायदा इसके लिए एक पूरी थ्योरी पेश की थी। अपनी किताब बंच ऑफ थाट्स (Bunch of Thoughts) में गोलवलकर ने हिन्दू राष्ट्र की राह में तीन दुश्मन चिह्नित किए थे– मुसलमान, ईसाई और कम्युनिस्ट। 

यही वजह है कि ये तीनों वर्ग आज भी हिंदुत्ववादियों के निशाने पर हैं। लोकसभा चुनाव में बहुमत से दूर रहने पर इन वर्गों पर हमले और तेज़ हो गए हैं और आगे होने वाले चुनावों के मद्देनज़र हमले और तेज़ होंगे। 

मोहन भागवत का 2024 में विजयदशमी को दिया गया भाषण याद कीजिए जिसमें वह कहते हैं कि “डीप स्टेट, वोकिज्म और कल्चरल मार्क्सिस्ट शब्द इस समय चर्चा में है और ये सभी सांस्कृतिक परंपराओं के घोषित दुश्मन हैं।”

RSS: कई नाम–कई चेहरे

आपको मालूम ही होगा कि RSS काम कैसे करता है। RSS कई नामों और चेहरों से काम करता है– राम मंदिर आंदोलन और बाबरी मस्जिद के विध्वंस में जिन संगठनों को आगे किया गया उनका नाम है विश्व हिंदू परिषद और बजरंग दल। यह दोनों ही RSS के अनुषांगिक संगठन हैं। विद्यार्थियों के बीच काम करने के लिए RSS ने अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद यानी ABVP बनाया। किसानों के बीच घुसपैठ के लिए भारतीय किसान संघ। मज़दूरों के लिए भारतीय मज़दूर संघ। महिलाओं को जोड़ने के लिए राष्ट्र सेविका समिति और बाद में दुर्गा वाहिनी। इस तरह के तमाम संगठन और प्लेटफार्म हैं। 

अब तो दलितों, आदिवासियों और बौद्धिक जगत में प्रवेश के लिए भी तमाम नामों से संगठन और फाउंडेशन हैं। और सबसे अहम पहले जनसंघ और अब भारतीय जनता पार्टी RSS का घोषित-अघोषित राजनीतिक प्लेटफॉर्म या हथियार तो है ही।   

अब आप कहेंगे कि यह तो बहुत सारे संगठन हैं– यानी RSS तो बहुत काम करता है। जी हां, आप सही समझे लेकिन नाम के लिए सिर्फ़ भली-भली, बड़ी बड़ी बातें, नीतिवचन देता है और काम के लिए साम-दाम-दंड-भेद का इस्तेमाल करता है ताकि किसी भी तरह बीजेपी को बढ़ावा देकर राजनीतिक सत्ता पर कब्ज़ा बनाए रखे और अपने हिंदूराष्ट्र की स्थापना का सपना पूरा करे। 

कथनी और करनी का फ़र्क़ तो आप जानते ही होंगे। 

आपने कभी सुना कि RSS या उससे जुड़े संगठनों ने देश की समस्याओं को लेकर कोई आवाज़ उठाई। ख़ासकर 2014 के बाद से जब से मोदी जी के नेतृत्व में केंद्र में उसकी सरकार बनी। स्वयंसेवक कभी महंगाई, बेरोज़गारी के ख़िलाफ़ सड़कों पर उतरे। अपराधों को लेकर भी सलेक्टिव रुख़ रहा है हमेशा। जैसे पिछले दिनों मोहन भागवत और मोदी जी ने कोलकाता के आरजी कर मेडिकल कालेज के रेप और हत्या का मुद्दा उठाया लेकिन उन्होंने कभी भी हाथरस में दलित लड़की के साथ हुए गैंगरेप और हत्या का मामला नहीं उठाया। कभी मणिपुर हिंसा को लेकर सरकार पर सवाल खड़े नहीं किए। लद्दाख के पर्यावरणविद् सोनम वांगचुक ने जब लद्दाख बचाने के लिए आंदोलन किया लेकिन इन दोनों ने उसे लेकर एक शब्द नहीं कहा। 

RSS के ही संगठन किसान मज़दूर संघ ने भी तीन कृषि क़ानूनों को लेकर देश भर के किसान आंदोलन से कन्नी काट ली। भारतीय मज़दूर संघ हमेशा मज़दूरों के हक़ में होने वाली हड़ताल से बाहर रहता है। 

RSS और आज़ादी का आंदोलन

RSS का यही रुख़ आज़ादी के आंदोलन के दौरान भी रहा। क्या आपको याद है कि RSS ने कभी आज़ादी के आंदोलन में हिस्सा लिया या उसके नेता आज़ादी की लड़ाई में जेल गए। RSS के तो आदर्श पुरुष वी डी सावरकर अंग्रेज़ों से माफ़ी मांगकर अमर हो गए। यह वही सावरकर हैं जिन्होंने जिन्ना से भी पहले हिंदू-मुसलमानों को दो राष्ट्र कहते हुए द्विराष्ट्र का सिद्धांत दिया था।  

मैं फिर अपनी बात दोहराउंगा कि RSS ने इन सौ सालों में काफ़ी ताक़त हासिल कर ली है, लेकिन अभी भी वह अजेय नहीं है, उसे बहुत ज़्यादा आंकना एक ग़लती है। 

RSS हमेशा दूसरों के कंधे पर रखकर बंदूक़ चलाता है और भीड़ के साथ हमलावर होता है। इसका सीधा उदाहरण बाबरी मस्जिद का विध्वंस है। जिस बाबरी मस्जिद के ख़िलाफ़ और राम मंदिर के नाम पर RSS और बीजेपी ने अपनी पूरी राजनीति चलाई, पूरे देश को हिंसा की आग में झोंक दिया, सत्ता की सीढ़ियां चढ़ीं उसी बाबरी मस्जिद को गिराने में अपनी भूमिका से RSS और बीजेपी के नेता साफ़ मुकर गए। 

आडवाणी और कल्याण सिंह से लेकर उमा भारती तक किसी भी नेता ने अदालत में बाबरी मस्जिद गिराने में अपनी भूमिका को स्वीकार नहीं किया, बल्कि उग्र भीड़ के मत्थे मढ़ दिया जबकि यह सारी उग्र भीड़ उन्होंने ही जुटाई थी और उस दिन अयोध्या में जलसा रखा था जहां ख़ुद आडवाणी मौजूद थे। ये लोग जानते थे कि यह विध्वंस संविधान के विरुद्ध और आपराधिक कृत्य है इसलिए बचाव  के लिए अटल बिहारी वाजपेयी से लेकर लाल कृष्ण आडवाणी तक ने 6 दिसंबर को काला दिन बताया और बाद में उन्हीं के लोग इसे शौर्य दिवस के रूप में मनाने लगे। मंदिर बनवाने का श्रेय लेने लगे। एक बाल ठाकरे थे जिन्होंने बाबरी मस्जिद विध्वंस में अपने शिवसैनिकों की भूमिका को खुले तौर पर स्वीकार किया था। 

दूसरे के कंधे के इस्तेमाल के तौर पर आप 2012 में मनमोहन सरकार के खिलाफ भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन को भी देख सकते हैं। सब जानते हैं कि आरएसएस ने किस तरह अन्ना हजारे के आंदोलन का समर्थन या इस्तेमाल किया। बाबा या कहें लाला रामदेव का इस्तेमाल किया। उसी दौर में निर्भया कांड को लेकर जनता के आक्रोश को भी मनमोहन सरकार के खिलाफ इसी तरह भुनाया गया। इस सबकी बदौलत ही 2014 में मोदी जी के नेतृत्व में बीजेपी की केंद्र में सरकार बनी।  

गाय के नाम पर मॉब लिंचिंग हो या तमाम तीज-त्योहार पर उपद्रव या हिंसा की घटनाएं…ये घटनाएं भी इसलिए बढ़ी हैं कि वहां भीड़ का सहारा होता है। अकेले किसी का सामना करने की ऐसे तत्वों में आज भी हिम्मत नहीं है। ऐसे लोग जुलूस-जलसों की आड़ लेते हैं और लोगों को उकसाते हैं और हिंसा होते ही ग़ायब हो जाते हैं। 

अब यह सब इसलिए ख़तरनाक हो गया है क्योंकि लगातार सत्ता के चलते लोकतंत्र के अन्य स्तंभों ने अपना काम करना लगभग बंद कर दिया है। न्यायपालिका के तमाम फ़ैसले सरकार की नीति से प्रभावित लगते हैं। ब्यूरोक्रैसी यानी पुलिस-प्रशासन भी ऐसी घटनाओं की न केवल पूरी तरह से अनदेखी कर रहा है, बल्कि पीड़ितों के ख़िलाफ़ ही कार्रवाई कर रहा है। चाहे वो दिल्ली दंगों का मामला हो या बहराइच दंगे का। … और मीडिया तो है ही उनकी गोदी में। इसलिए न चेक है, न बैलेंस। और चीज़ें तेज़ी से बिगड़ती जा रही हैं। 

RSS-BJP और उसके नेता हमारी-आपकी नज़र में चाहे कितने अच्छे हों, कितने ताक़तवर हों लेकिन इतना तय जानिए कि देश के संविधान और धर्मनिरपेक्ष मूल्यों में उनका विश्वास नहीं है। उन्होंने तो सेकुलर शब्द को ही एक गाली बना दिया है। और यह आज की बात नहीं है, RSS ने हमेशा भारतीय संविधान की जगह मनुस्मृति को तरजीह दी है, उसकी वकालत की है। 

बाबा साहेब भीमराव अंबेडकर के नेतृत्व में 2 साल से भी ज़्यादा की मेहनत के बाद हमारा संविधान 26 नवंबर 1949 को तैयार हुआ और आरएसएस के मुखपत्र ‘दि आर्गेनाइजर’ के 30 नवम्बर 1949 के अंक में लिखा गया कि “भारत के नए संविधान के बारे में सबसे खास बात यह है कि इसमें कुछ भी ऐसा नहीं है, जिसे भारतीय कहा जाए। इसमें न भारतीय कानून हैं, न भारतीय संस्थाएं हैं, न शब्दावली और पदावली हैं। इसमें प्राचीन भारत के मनु के कानूनों का उल्लेख नहीं है, जिन्होंने दुनिया को प्रेरित किया है। किन्तु हमारे संवैधानिक पंडितों (आंबेडकर और नेहरू) के लिए उनका कोई अर्थ नहीं है।”

यह विरोध लिखने और बोलने तक ही सीमित नहीं था, बल्कि उसके विरोध में आरएसएस ने प्रदर्शन भी किये थे, और दिल्ली में बाबा साहेब अंबेडकर का पुतला भी फूंका था।

यही नहीं आज जिस तिरंगे को लेकर उसके कार्यकर्ता जुलूस निकालते हैं, दूसरों को चुनौती देते हैं, ललकारते हैं, मोदी सरकार हर घर तिरंगा अभियान चलाती है, आपकी-हमारी देशभक्ति का पैमाना तय करती है, उसी तिरंगे को भी RSS ने स्वीकार नहीं किया था। 

इतिहास के जानकार बताते हैं कि 

 “14 अगस्त, 1947 को आरएसएस के मुखपत्र ऑर्गनाइज़र में प्रकाशित एक संपादकीय में कहा गया था कि- जो लोग भाग्य से सत्ता में आ गए हैं, उन्होंने हमारे हाथों में तिरंगा पकड़ा दिया है लेकिन इसे हिंदू कभी स्वीकार नहीं करेंगे और कभी इसका सम्मान नहीं करेंगे. तीन शब्द अपने आप में अशुभ है और तीन रंगों वाला झंडा निश्चित तौर पर बुरा मनोवैज्ञानिक प्रभाव पैदा करेगा और देश के लिए हानिकारक साबित होगा.”

तो यह है RSS. 

इसलिए अब तय करना होगा कि हमें ख़ुद को और अपने देश की किस तरफ़ किस रास्ते पर ले जाना है। एक रास्ता हमारे देश की महान साझी शहादत-साझी विरासत का है। महात्मा गांधी, भगत सिंह, अशफ़ाकउल्ला, बाबा साहेब अंबेडकर, ज्योतिबा फुले, सावित्रीबाई फुले का है और एक रास्ता एकरंगी, दकियानूसी, दलित और महिला विरोधी नफ़रत और हिंसा से भरा लोकतंत्र और संविधान विरोधी है जो निश्चित तौर पर देश को पीछे ले जाएगा। 

मुकुल सरल

View all posts