गाज़ा के बच्चे क्यों याद आते हैं कवि मंगलेश डबराल को पढ़ते हुए | क्या है कनेक्शन!
प्यारे बच्चो हम तुम्हारे काम नहीं आ सके। तुम चाहते थे हमारा कीमती समय तुम्हारे खेलों में व्यतीत हो। तुम चाहते थे हम तुम्हें अपने खेलों में शरीक करें। तुम चाहते थे हम तुम्हारी तरह मासूम हो जाएं।
प्यारे बच्चो हमने ही तुम्हें बताया था जीवन एक युद्धस्थल है जहां लड़ते ही रहना होता है। हम ही थे जिन्होंने हथियार पैने किए। हमने ही छेड़ा युद्ध हम ही थे जो क्रोध और घृणा से बौखलाए थे। प्यारे बच्चो हमने तुमसे झूठ कहा था।
युद्ध तबाही जनसंहार जेनोसाइड से घिरी दुनिया दुनिया में यह कविता पड़ते हुए लग रहा है कि जैसे फिलिस्तीन के गाजा में बैठा एक पिता अपने बच्चों के नाम यह पाती लिख रहा है। नफरत से सुलग रहे हमारे वतन के किसी कोने से भी इसी कविता की आवाज गूंजती लगती है। दरअसल, दोस्तों यह चिट्ठी में गुंथी हुई जो कविता है—इसे लिखा हिंदी के मशहूर कवि-हर दिल अजीज बेहद प्यारे इंसान मंगलेश डबराल ने।
मंगलेश डबराल का जन्मदिन पड़ता है 16 मई को, अगर वह जिंदा होते तो 2025 में 77 साल के होते। कोरोना काल की क्रूरता ने उन्हें हमसे छीन लिया 9 दिसंबर 2020 को। उनका जाना सैंकड़ों लोगों के लिए आघात था, जिनमें मैं भी शामिल हूं। मेरे मंगलेशा चाचा चले गये और आज फिर उनकी कविताओं से गुजरना, उनका अपने दिल के करीब से गुजरना जैसा लगता है। उनकी बेटी अलमा डबराल ने इस कविता को 2022 में साझा किया था और आज इसे पढ़ते हुए गाजा-फिलिस्तीन की तबाही, बच्चों को बचाते माता-पिता आंखों के आगे घूमते हैं— बेबाक भाषा की तरफ से हम अपने समय के बेहद जरूरी कवि को याद कर रहे हैं, उनकी कुछ कविताओं की कुछ पंक्तियों को गुलदुस्ते में सहेज कर
प्यारे बच्चो हम तुम्हारे काम नहीं आ सके। तुम चाहते थे हमारा कीमती समय तुम्हारे खेलों में व्यतीत हो। तुम चाहते थे हम तुम्हें अपने खेलों में शरीक करें। तुम चाहते थे हम तुम्हारी तरह मासूम हो जाएं। प्यारे बच्चो हमने ही तुम्हें बताया था जीवन एक युद्धस्थल है जहां लड़ते ही रहना होता है। हम ही थे जिन्होंने हथियार पैने किए। हमने ही छेड़ा युद्ध हम ही थे जो क्रोध और घृणा से बौखलाए थे। प्यारे बच्चो हमने तुमसे झूठ कहा था। यह एक लंबी रात है। एक सुरंग की तरह। यहां से हम देख सकते हैं बाहर का एक अस्पष्ट दृश्य। हम देखते हैं मारकाट और विलाप। बच्चो हमने ही तुम्हे वहां भेजा था। हमें माफ़ कर दो। हमने झूठ कहा था कि जीवन एक युद्धस्थल है। प्यारे बच्चो हम तुम्हारे काम नहीं आ सके। तुम चाहते थे हमारा कीमती समय तुम्हारे खेलों में व्यतीत हो। तुम चाहते थे हम तुम्हें अपने खेलों में शरीक करें। तुम चाहते थे हम तुम्हारी तरह मासूम हो जाएं। प्यारे बच्चो हमने ही तुम्हें बताया था जीवन एक युद्धस्थल है जहां लड़ते ही रहना होता है। हम ही थे जिन्होंने हथियार पैने किए। हमने ही छेड़ा युद्ध हम ही थे जो क्रोध और घृणा से बौखलाए थे। प्यारे बच्चो हमने तुमसे झूठ कहा था। प्यारे बच्चो जीवन एक उत्सव है जिसमें तुम हंसी की तरह फैले हो। जीवन एक हरा पेड़ है जिस पर तुम चिड़ियों की तरह फड़फड़ाते हो। जैसा कि कुछ कवियों ने कहा है जीवन एक उछलती गेंद है और तुम उसके चारों ओर एकत्र चंचल पैरों की तरह हो। प्यारे बच्चो अगर ऎसा नहीं है तो होना चाहिए।
सच में ऐसा ही होना चाहिए यह हम आज पहले से ज्यादा महसूस करते हैं, जब नफरत ही नया नॉमल बनाई जा रही है और फिर याद आती है मंगलेश जी की यह कविता –नये युग में शत्रु—उसकी कुछ पंक्तियां युद्धोनमाद में डूबे देश को समझने के लिए पहाड़ पर लालटेन की तरफ टिमटिम करती है—पहाड पर लालटेन मंगलेश डबराल की कविता है
नए युग में शत्रु
अंततः हमारा शत्रु भी एक नए युग में प्रवेश करता है
अपने जूतों कपड़ों और मोबाइलों के साथ
वह एक सदी का दरवाज़ा खटखटाता है
और उसके तहख़ाने में चला जाता है
जो इस सदी और सहस्राब्दी की ही तरह अथाह और अज्ञात है
वह जीत कर आया है और जानता है कि उसकी लड़ाइयाँ बची हुई हैं
हमारा शत्रु किसी एक जगह नहीं रहता
लेकिन हम जहाँ भी जाते हैं पता चलता है वह और कहीं रह रहा है
अपनी पहचान को उसने हर जगह अधिक घुला-मिला दिया है
जो लोग ऊँची जगहों में भव्य कुर्सियों पर बैठे हुए दिखते हैं
वे शत्रु नहीं सिर्फ़ उसके कारिंदे हैं
जिन्हें वह भर्ती करता रहता है
ताकि हम उसे खोजने की कोशिश न करें
हम कैसे बचेंगे इस क्रूर समय में, अगर यह कोई मंगलेश डबराल से पूछता तो वह जरूर अपनी छुओ कविता पढ़ते…
छूने के लिए ज़रूरी नहीं कोई बिल्कुल पास में बैठा हो
बहुत दूर से भी छूना संभव है
उस चिड़िया की तरह दूर से ही जो अपने अंडों को सेती रहती है
कृपया छुएँ नहीं या छूना मना है जैसे वाक्यों पर विश्वास मत करो
यह लंबे समय से चला आ रहा एक षड्यंत्र है
तमाम धर्मगुरु ध्वजा-पताका-मुकुट-उत्तरीयधारी
बमबाज़ जंगख़ोर सबको एक दूसरे से दूर रखने के पक्ष में हैं
वे जितनी गंदगी जितना मलबा उगलते हैं
उसे छूकर ही साफ़ किया जा सकता है
इसलिए भी छुओ भले ही इससे चीज़ें उलट-पुलट हो जाएँ
इस तरह मत छुओ जैसे भगवान महंत मठाधीश भक्त चेले
एक दूसरे के सर और पैर छूते हैं
बल्कि ऐसे छुओ जैसे
लंबी घासें चाँद-तारों को छूने-छूने को होती हैं
अपने भीतर जाओ और एक नमी को छुओ
देखो वह बची हुई है या नहीं इस निर्मम समय में।
बेबाक भाषा की तरफ से हम अपने समय के बेहद जरूरी कवि को याद कर रहे हैं, उनकी कुछ कविताओं की कुछ पंक्तियों को गुलदुस्ते में सहेज कर