जल-जंगल-जमीन के हक के लिए चल रहा घमासान, शरण्या से ख़ास बातचीत
ओडिशा के कोरापुट ज़िले से 10-15 किलोमीटर दूर बसे माच्रा गाँव में एक महिला सामाजिक कार्यकर्ता इतिहास रच रही हैं। उनका नाम है शरण्या। 53 वर्ष की उम्र में भी वह रोज़ पहाड़ों पर चढ़ती हैं, गाँव-गाँव जाकर जनसभा करती हैं और हर मंच पर एक ही बात दोहराती हैं — “विकास नहीं, विनाश रोको”।
शरण्या कोई बाहरी NGO कार्यकर्ता नहीं हैं जो प्रोजेक्ट के खत्म होते ही विदा ले लेती हों। वह साल 1999 से कोरापुट, रायगढ़ और मलकानगिरी जिलों में आदिवासी और दलित समुदाय के बीच रहकर उनके संघर्षों का हिस्सा बनी हुई हैं। साल 2015 में उन्होंने NGO की नौकरी छोड़ दी और तब से माच्रा गाँव को ही अपना स्थायी घर बना लिया।
“माली परबत से बाल्डा तक, हर पहाड़ पर खनन की तलवार लटकी है”
शरण्या बताती हैं कि कोरापुट और आसपास के इलाके बॉकसाइट खनन के बड़े केंद्र बन चुके हैं।
प्रमुख खनन क्षेत्रों की सूची:
- माली परबत (2003) – हिंडाल्को को दिया गया, पर दो दशक में शुरू नहीं हो पाया।
- सेरुबंधा पहाड़ (2023) – PSU नाल्को को मिला, स्थानीय विरोध के चलते रुका।
- बाल्डा/नागेस्वरी पहाड़ – अदानी समूह को 2023 में आवंटित।
- तीजमाली पहाड़ – वेदांता समूह को आवंटित।
- कुट्रुमाली – अदानी समूह को।
- माझिंगमाली – अब तक नीलामी नहीं, पर तैयारी जारी।
इन सभी पहाड़ों पर 200 से अधिक गाँव बसे हैं, जो या तो विस्थापन के मुहाने पर हैं या पहले से प्रभावित हैं।
“मगर इन गांवों में एक भी परिवार भूखा नहीं सोता”
शरण्या कहती हैं कि यह इलाका जल, जंगल और ज़मीन से भरपूर है। “हमने माली परबत के नीचे 72 छोटे-बड़े झरनों की मैपिंग की है। साल भर सब्ज़ी, मिलेट, धान और दाल उगाई जाती है। सरकार कुछ भी न दे, फिर भी गाँवों में कोई भूखा नहीं सोता।”
खनन परियोजनाओं से पहले यहाँ के लोगों को न तो नौकरी मिली, न स्वास्थ्य सुविधा, न शिक्षा। “नाल्को के खनन के नीचे के गांवों में आज भी पीने का पानी नहीं है।”
बाल्डा पहाड़: अदानी समूह की नई नज़र
शरण्या बताती हैं कि बाल्डा पर जो नई परियोजना अदानी को दी गई है, वहाँ 40 गाँवों ने मिलकर “बाल्डा नागेस्वरी सुरक्षा समिति” बनाई है। इस संगठन ने:
- पब्लिक हियरिंग में ज़ोरदार विरोध दर्ज कराया।
- लिखित आपत्तियाँ दीं कलेक्टर और प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड को।
- फॉरेस्ट क्लियरेंस को रोकने के लिए अभी से लामबंदी शुरू की है।
“यहाँ आदिवासी और दलित मिलकर लड़ते हैं — यही हमारी ताकत है”
शरण्या मानती हैं कि आदिवासी और दलित समुदायों में आपसी भेदभाव की कुछ सच्चाई जरूर है, लेकिन जब सवाल ज़मीन और पहाड़ का आता है — दोनों समुदाय मिलकर संगठित प्रतिरोध खड़ा करते हैं।
“नेतृत्व भी साझा होता है, निर्णय भी। यही लोकतंत्र है, यही असल विकास।”
“मुझे तीन बार ज़िला बदर किया गया”
शरण्या को जिला प्रशासन ने IPC की विभिन्न धाराओं और अब BNS की 163 धारा के तहत तीन बार ज़िला बदर किया है।
- माली परबत आंदोलन
- सेरुबंधा आंदोलन
- अब बाल्डा आंदोलन में सक्रियता के चलते उन्हें कोरापुट से 6 महीने के लिए निष्कासित किया गया।
“मैं सिर्फ़ 40 किलोमीटर दूर के गाँव से हूं, लेकिन पुलिस मुझे outsider बताकर नोटिस देती है। रात को आठ-नौ बजे पुलिस आती है, बच्चों को डराने के लिए।”
“विकास का मतलब सड़क नहीं, संस्कृति और सम्मान है”
वह कहती हैं:
“सरकार पूछे तो सही कि विकास का मतलब हमारे लिए क्या है? हम अपने देवता, जंगल और खेती को खोकर क्या पाएंगे?”
विकास का पैमाना आदिवासियों से नहीं, बल्कि शहरी मध्यवर्ग से लिया जाता है — यही सबसे बड़ी समस्या है।
“हनुमान और भगवा की बाढ़ आ गई है हमारे जंगलों में”
शरण्या बताती हैं कि हिंदुत्व का आक्रमण आज न सिर्फ़ शहरों में बल्कि गाँवों तक पहुंच चुका है।
- “हनुमान की 60 फीट की मूर्तियां खड़ी की जा रही हैं”
- “रामनवमी का शोभायात्रा पहली बार कोरापुट में 2024 में हुई”
- “अब आदिवासियों से बीफ छुड़वाया जा रहा है, उनका खानपान बदलने की कोशिश हो रही है”
“हमारे देवता पहाड़ों में रहते हैं — नियम राजा, डोंगर देवता, नागेस्वरी। वो लोगों से बात करते हैं। वो hierarchical नहीं, साझे देवता हैं।”