June 27, 2025 7:32 pm
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कला के जरिये रोजी-रोटी व गरिमा की लड़ाई

बेबाक भाषा की विशेष बातचीत में दलित चित्रकार प्रभुदयाल पेंटर ने बताया कैसे संघर्ष के बीच उन्होंने कला और समाज सेवा दोनों को जिंदा रखा।

दलित पेंटर व मूर्तिकार प्रभुदयाल से विशेष बातचीत

नई दिल्ली के पटेल नगर की बावा फरीदपुरी कॉलोनी में एक नाम बेहद सम्मान के साथ लिया जाता है — प्रभुदयाल पेंटर। वे एक चित्रकार, मूर्तिकार, रंगकार और सामाजिक कार्यकर्ता हैं। लेकिन इससे भी पहले वे एक संवेदनशील इंसान हैं, जिन्होंने कठिन परिस्थितियों में अपने जीवन और कला को जिंदा रखा।

कला की शुरुआत: पत्थरों पर उकेरे सपने

प्रभुदयाल कहते हैं,

“ना कोई ट्रेनिंग, ना कोई गुरु। बचपन में चॉक से लेकर पत्थरों तक ड्रॉइंग करता था। धीरे-धीरे ये आदत बन गई, और फिर आदत से हुनर।”

वे मानते हैं कि यह प्रतिभा उनके लिए God-gifted है। जब उनके पिताजी का निधन हुआ, तब वे महज 15-16 वर्ष के थे। उस कठिन वक्त में कला ने उन्हें थामा और रोज़गार का साधन बना।

संघर्ष का दौर: काम के साथ आत्मनिर्माण

बहुत कम उम्र में उन्होंने काम शुरू किया। पेंटिंग की दुकानों पर काम किया, दूसरों को देखकर सीखा। उनके चित्रों की पहचान ऐसी बनी कि दिल्ली की गलियों से लेकर टेलीविजन चैनलों तक उनके काम की चर्चा होने लगी।

“उस दौर में जब लोग 300-400 रुपये लेते थे, मैं 2,500 रुपये तक कमाता था। मैंने अपने बल पर खुद को खड़ा किया।”

कला और कद्र: जब लोग पहचानने लगे

उनकी प्रसिद्धि का आलम यह था कि कुछ लोगों ने उन्हें “किडनैप” जैसे हालात में काम पर रखा — ताकि कोई दूसरा उनका हुनर ‘हायर’ न कर पाए। दिल्ली भर में लोग उनकी बनाई पेंटिंग्स को खोज रहे थे।

“मेरे पीछे चार-चार लड़के लगाए गए थे कि कहीं कोई और मुझे हायर न कर ले।”

सामाजिक सक्रियता: जब झुग्गियां टूट रही थीं

सिर्फ कलाकार ही नहीं, प्रभुदयाल सामाजिक कार्यकर्ता भी हैं। जब दिल्ली के गायत्री कॉलोनी की झुग्गियों पर बुलडोज़र चला, तब वे सबसे आगे खड़े हुए। उन्होंने राजनीतिक संपर्कों से मदद मांगी, जेल गए, लेकिन झुग्गीवासियों का साथ नहीं छोड़ा।

“6 महीने तक कोई और काम नहीं किया, सुबह 6 बजे से रात 10 बजे तक वहीं बैठा रहता था। आज उस जगह फिर से बस्ती बसी है।”

कला बनाम प्रतिस्पर्धा: ईर्ष्या भी मिली

प्रभुदयाल खुलकर बताते हैं कि कई कलाकार उनसे ईर्ष्या भी करते थे। जब वे किसी वर्कशॉप में पहुंचते, तो अन्य पेंटर काम रोक देते।

“ईर्ष्या होती थी, पर मैं अपने काम से जवाब देता था।”

युवा कलाकारों के लिए संदेश

“आज के समय में सीखने के लिए साधन बहुत हैं। अगर मेहनत और लगन हो, तो पेंटिंग या मूर्ति कला में करियर की अपार संभावनाएं हैं।”

वे मानते हैं कि यह पेशा सिर्फ जीविका नहीं, बल्कि आत्मा की सृजनात्मक अभिव्यक्ति है।

निष्कर्ष

प्रभुदयाल पेंटर का जीवन संघर्ष, समर्पण और संवेदना का संगम है। वे सिर्फ रंगों के जादूगर नहीं, सामाजिक सच्चाइयों के दस्तावेज़ भी हैं। उनकी कला और जीवन दोनों इस बात के उदाहरण हैं कि मेहनत, ईमानदारी और प्रतिबद्धता से कोई भी अपनी दुनिया रच सकता है — चाहे वह दीवार पर हो या समाज के तानेबाने में।

राज वाल्मीकि

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