सीज़फायर तेहरान में, कत्लेआम ग़ज़ा में — ट्रंप की नोबेल महत्वाकांक्षा बनाम भूख से मरते फिलिस्तीनी
ग़ज़ा की ये तस्वीरें दुनिया के सामने एक ऐसा सवाल पेश कर रही हैं, जिसका जवाब कोई नहीं दे रहा:
अगर ट्रंप ईरान और इज़रायल के बीच सीज़फायर करवा सकते हैं, तो फिर ग़ज़ा में भूख से मरते मासूमों को बचाने के लिए क्यों नहीं बोलते?
जहां एक ओर डोनाल्ड ट्रंप खुद को नोबेल शांति पुरस्कार का दावेदार बता रहे हैं, वहीं दूसरी ओर ग़ज़ा में भूख, बमबारी और बर्बादी का सिलसिला थमने का नाम नहीं ले रहा।
मीडिया की आँखें सिर्फ ईरान और इज़रायल पर क्यों?
एक व्यंग्यात्मक कार्टून में साफ़ दिखता है कि मीडिया का कैमरा टैंक पर चढ़ा हुआ है और उसका लेंस सिर्फ तेहरान और इज़रायल की तरफ़ घूमा हुआ है, जबकि बगल में ग़ज़ा के भूखे-बिलखते लोग कैमरे के फ्रेम में भी नहीं हैं। यह सच्चाई केवल अंतरराष्ट्रीय मीडिया की नहीं है — भारतीय मीडिया भी तेल अवीव तक तो पहुँच जाता है लेकिन ग़ज़ा की ज़मीनी हकीकत से मुंह चुराता है।
3,77,000 ‘लापता’ फिलिस्तीनी: एक नया आंकड़ा, एक नया खौफ
हावर्ड विश्वविद्यालय समर्थित रिपोर्ट में इस्राईली सेना के डेटा का हवाला देते हुए दावा किया गया है कि करीब 3,77,000 फिलिस्तीनी गायब हो गए हैं।
यह आंकड़ा 60,000 के आसपास मृतकों की पुष्टि से कहीं अधिक भयावह है और इस बात का संकेत है कि ग़ज़ा में न केवल हत्याएं हो रही हैं, बल्कि व्यवस्थित रूप से लोगों को ग़ायब किया जा रहा है।
नोबेल की चाहत, बम की भाषा
कार्टूनिस्ट सतीश आचार्य की एक तीखी टिप्पणी इस पूरे प्रहसन को उजागर करती है, जहां ट्रंप बम को मुंह में लेकर नोबेल शांति पुरस्कार की मांग करते नज़र आते हैं। यह छवि दोहरे मानकों और पश्चिमी सत्ता की नैतिक दिवालियापन का खुला बयान है।
ग़ज़ा के समर्थन में उठती आवाज़ें
दुनिया भर में और भारत में भी लोग अब ग़ज़ा के समर्थन में सड़कों पर उतर रहे हैं। यह आवाजें कह रही हैं — “सीज़फायर से पहले न्याय चाहिए”, “ग़ज़ा की घेराबंदी खत्म हो”, और “फिलिस्तीनी जान भी इंसान की जान है।”
बेबाक भाषा इन आवाज़ों का न केवल समर्थन करता है, बल्कि ये भी पूछता है:
क्या एक व्यक्ति की नोबेल की महत्वाकांक्षा इतने लाखों बेगुनाहों की कीमत पर खरीदी जा सकती है?