Home » दुनियाभर की » ग्रीनलैंड में कौन से खजाने के पीछे पगलाये पड़े हैं ट्रंप

ग्रीनलैंड में ग्रीन कुछ भी नहीं और लैंड के नाम पर बर्फ ज्यादा है

वैसे तो डोनाल्ड ट्रंप ने अमेरिका के राष्ट्रपति का पद दूसरी बार संभालने के बाद से ही उथल-पुथल मचा रखी है, जिसका असर खुद अमेरिका के लोगों के साथ-साथ बाकी दुनिया भी देख ही रही है। ट्रंप के इन्हीं फितूरी बयानों में से एक था उनकी ग्रीनलैंड को डेनमार्क से छीनकर अमेरिका में मिलाने की मंशा के बारे में। मिलाना तो वह कनाडा को भी चाहते हैं और कह रहे हैं कि कनाडा को अमेरिका का 51वां राज्य बन जाना चाहिए। लेकिन वह इतना आसान नहीं। पर ग्रीनलैंड को अमेरिका में मिलाने की उनकी हसरत पुरानी है। वह 2019 में भी अपने पहले कार्यकाल के दौरान यह इच्छा जाहिर कर चुके थे, लेकिन इस बार वह ज्यादा गंभीर नजर आते हैं और राष्ट्रपति बनने के बाद उनके पहले 35 दिनों को देख लिया जाए तो साफ नजर आ रहा है कि उन्होंने अपने दिमाग की फितूरी उपजों को अमली जामा पहनाने में ज्यादा तत्परता दिखाई है।

आप ग्रीनलैंड का नक्शा और दुनिया के नक्शे पर उसकी जगह देखेंगे तो आपको समझ आएगा कि ट्रंप उसके पीछे क्यों पड़े हैं। ग्रीनलैंड दुनिया का सबसे बड़ा द्वीप है, और भौगोलिक लिहाज से वह उत्तर अमेरिका में आता है। आर्क्टिक व अटलांटिक महासागर के बीच में स्थित यह द्वीप मोटे तौर पर बर्फ से ढका रहता है और इसकी आबादी है महज 57 हजार लोगों की। खनिज संसाधनों से भरपूर और सामरिक लिहाज से बेहद ही महत्वपूर्ण इलाके में स्थित ग्रीनलैंड करीब छह सौ सालों से डेनमार्क के अधीन है। 1953 तक यह डेनमार्क का उपनिवेश था और उसके बाद यह औपचारिक रूप से डेनमार्क का हिस्सा हो गया। 1979 में उसे थोड़ी स्वायत्तता मिली और उसकी अपनी अलग संसद हो गई। फिर 2009 में उसकी स्वायत्तता में इजाफा करते हुए उसे एक जनमत संग्रह के जरिये संपूर्ण आजादी हासिल करने के अधिकार को भी इसमें शामिल कर दिया गया। साल 2023 में वहां के अलग सविधान का मसौदा तैयार किया गया और पिछले साल एक कमीशन स्थापित किया गया था जिसे ग्रीनलैंड की आजादी के लिए जरूरी कदमों का मूल्यांकन करने का जिम्मा सौंपा गया। अब वहां 11 मार्च को संसद की 31 सीटों के लिए चुनाव हैं। जाहिर है कि आजादी वहां चुनावों का सबसे बड़ा मुद्दा है। 2009 के समझौते के अनुरूप यदि ग्रीनलैंड की संसद आजादी हासिल कने का फैसला करती है तो उसे डेनमार्क की सरकार से इस बारे में बात करनी होगी और दोनों के सहमत होने पर डेनमार्क की संसद की मंजूरी और ग्रीनलैंड में जनमत संग्रह में रजामंदी के बाद ही ग्रीनलैंड आजादी हासिल कर सकेगा।

लेकिन आजादी की तरफ बढ़े रहे वहां के लोगों के सधे कदमों पर ट्रंप की महत्वाकांक्षाओं ने कुछ ब्रेक से लगा दिए हैं। ट्रंप ग्रीनलैंड को अपने कब्जे में लेने पर इतने ज्यादा उतारू हैं कि उन्होंने इसके लिए बल-प्रयोग की संभावना से भी इनकार नहीं किया है। ग्रीनलैंड के लोग आजाद तो होना चाहते हैं लेकिन वे अमेरिका का हिस्सा नहीं बनना चाहते। ट्रंप से भी बहुत पहले, जब ग्रीनलैंड डेनमार्क का उपनिवेश ही था, उस समय भी, यानी शीत युद्ध के काल में तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति हैरी ट्रूमैन ने ग्रीनलैंड को सौ मिलियन डॉलर मूल्य के बराबर सोने के बदले खरीदने की पेशकश की थी, लेकिन डेनमार्क ने बेचने से मना कर दिया था।

फिर 2019 में ट्रंप की ग्रीनलैंड को खरीदने की पेशकश को भी डेनमार्क ने खारिज कर दिया था। प्रधानमंत्री मेटे फ्रेड्रिक्सन ने इसे बेतुका बताया था। इस बार ट्रंप के फिर से यह मसला उठाने के बाद फ्रेड्रिक्सन ने कहा कि हर व्यक्ति को यह समझना चाहिए कि ग्रीनलैंड निवासी भी इंसान हैं और यह उनका देश है, लिहाजा केवल वे ही अपने भविष्य के बारे में फैसला कर सकते हैं।

चूंकि ग्रीनलैंड सामरिक रूप से महत्वपूर्ण ग्रीनलैंड-आइसलैंड-युनाइटेड किंग्डम (गियूक) गैप में स्थित है, इसलिए शीत युद्ध के दौरान इसकी बड़ी अहमियत थी। उस समय सोवियत परमाणु पनडुब्बियां अटलांटिक महासागर में अमेरिका व उसके नाटो सहयोगी देशों के नजदीक चक्कर काटती रहती थीं। डेनमार्क की सीमित सैन्य शक्ति के कारण वहां सोवियत संघ को चुनौती देने वाला कोई नहीं होता था। दूसरे विश्व युद्ध में अमेरिकी सेना ने ग्रीनलैंड का इस्तेमाल किया था। फिर शीत युद्ध के दौरान अमेरिका ने वहां उत्तर-पश्चिमी तट पर तुली एयरबेस स्थापित किया था जो बाद में पिटुफिक एयरबेस हो गया। ट्रंप को आर्क्टिक महासागर में ग्रीनलैंड से परे रूसी व चीनी जहाजों की गतिविधियों की चिंता है। ग्रीनलैंड उसे मिल जाता है तो अमेरिका के कब्जे में वहां के कई दुर्लभ खनिज भंडार भी आ जाएंगे।

ग्रीनलैंड की राजधानी नुक दरअसल डेनमार्क की राजधानी कोपेनहेगन की तुलना में न्यूयार्क से ज्यादा नजदीक है। खनिज के अलावा तेल व प्राकृतिक गैस भी ग्रीनलैंड में भरपूर मात्रा में मौजूद हैं। ट्रंप की उसमें खासी रुचि है। इसके अलावा अमेरिकी सेना और उसके बैलेस्टिक मिसाइल अर्ली-वार्निंग सिस्टम के लिए भी ग्रीनलैंड की खासी अहमियत है क्योंकि यूरोप से उत्तरी अमेरिका के लिए सबसे छोटा रास्ता ग्रीनलैंड से ही होकर निकलता है।

लेकिन वहां विकास की गति धीमी रही है। बताया जाता है कि हर साल डेनमार्क एक अरब डॉलर से भी कम ही ग्रीनलैंड पर खर्च करता है। इससे ग्रीनलैंड के बजट का तकरीबन आधा ही पूरा होता है। ग्रीनलैंड की बाकी अर्थव्यवस्था फिशिंग पर निर्भर है, जिसकी उसके निर्यात में 95 फीसदी भागीदारी है। ऐसे में महज 57 हजार की आबादी और विशाल भौगेलिक क्षेत्र वाला इलाका आजादी हासिल करके कैसे अपनी हिफाजत करेगा! यही वजह है कि ग्रीनलैंड के लोग आजादी तो चाहते हैं लेकिन जीवन-स्तर पर पड़ने वाले प्रभाव के डर से वे यह तय नहीं कर पा रहे कि आजादी कब मिलनी चाहिए। डेनमार्क पर आर्थिक निर्भरता को देखते हुए बहुत कम लोग हैं जो पूर्ण आजादी को एक निकट भविष्य में कायदे का विकल्प मानते हैं। अभी तो डेनमार्क की बदौलत ग्रीनलैंड भी संपन्न यूरोपीय संघ का हिस्सा है।

ट्रंप की ख्वाहिशों ने डेनमार्क के भीतर भी एक बहस छेड़ दी है क्योंकि वहां कहा जाने लगा है कि डेनमार्क ने ग्रीनलैंड की हिफाजत पर ज्यादा ध्यान नहीं दिया है। यही वजह है कि इन्हीं दिनों डेनमार्क ने ग्रीनलैंड में अपनी सैन्य मौजूदगी में इजाफा करने के लिए 2 अरब डॉलर आवंटित करने का फैसला किया है।

डेनमार्क के भी ज्यादातर लोग ग्रीनलैंड को डेनमार्क का महत्वपूर्ण हिस्सा मानते हैं, लेकिन वे यह भी मानते हैं कि ग्रीनलैंड को अपना भविष्य खुद तय करने का अधिकार मिलना चाहिए। ज्यादातर लोग ग्रीनलैंड को अमेरिका को बेच देने के भी सख्त खिलाफ़ हैं।

एक विकल्प आजाद होने के बाद अमेरिका के साथ कथित फ्री-एसोसिएसन संधि का भी है, जैसा प्रशांत महासागर में स्थित द्वीप देशों मार्शल आइलैंड्स, माइक्रोनेशिया व पलाऊ ने कर रखा है। ग्रीनलैंड की तीसरी सबसे बड़ी पार्टी और आजादी की पुरजोर समर्थक नालेरक ने कहा है कि वह आजादी के बाद अमेरिका से रक्षा समझौते और डेनमार्क या किसी अन्य देश के साथ फ्री-एसोसिएशन की पक्षधर है। इस तरह ग्रीनलैंड की अपनी पार्टियां मौटे तौर पर आजादी की पक्षधर होने के बावजूद  इस समय अलग-अलग एप्रोच पर चल रही हैं। ग्रीनलैंड की बहुत बड़ी जरूरत अपनी आर्थिक आत्मनिर्भरता कायम करने की है, जिसके लिए उसे फिशिंग के अलावा टूरिज्म और माइनिंग उद्योगों पर काम करना होगा।

मजेदार बात यह है कि डेनमार्क भी नाटो का एक महत्वपूर्ण देश है। ऐसे में अमरिका की कोई जोर-जबरदस्ती नाटो संधि के भी खिलाफ होगी और संयुक्त राष्ट्र चार्टर के भी। लेकिन ट्रंप ने अब तक दुनिया को यह तो बता ही दिया है कि वे अपनी महत्वाकांक्षाओं के आगे दुनिया के किसी नियम-कायदे या संधि की रत्ती भर भी परवाह नहीं करते।

उपेंद्र स्वामी

पैदाइश और पढ़ाई-लिखाई उदयपुर (राजस्थान) से। दिल्ली में पत्रकारिता में 1991 से सक्रिय। दैनिक जागरण, कारोबार, व अमर उजाला जैसे अखबारों में लंबे समय तक वरिष्ठ समाचार संपादक के रूप में कार्य। वेब मीडिया का अनुभव व अध्यापन। फ़ोटोग्राफ़ी और घुमक्कड़ी का शौक। ट्रेकिंग व बाइकिंग में गहरी रुचि। ट्रैवल पर मासिक पत्रिका आवारा मुसाफ़िर का प्रकाशन। अमर्त्य सेन, ज्य़ॉं द्रेज, शेरिल पेयर, अमिता बाविस्कर, डोमिनीक लापिएर जैसे लेखकों की किताबों का हिंदी में अनुवाद।

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