जंगल को बचाने वाले वन गुर्जर और टोंगिया गलत सरकारी नीति से हैं तबाह
“जिस जानवर के पीछे ज़िंदगी बर्बाद की, आज वही हमारा दुश्मन बन गया है।”
यह आवाज़ है गुलाम नबी की — एक वन गुर्जर, जो सहारनपुर के चपरी खोल क्षेत्र में रहते हैं। वे कहते हैं:
“हमने अपनी पीढ़ियों की ज़िंदगी पशुओं के साथ जंगलों में गुजार दी, लेकिन अब सरकार हमें उन्हीं जानवरों के नाम पर अपराधी बना रही है।”
कौन हैं वन गुर्जर और टोंगिया?
- वन गुर्जर: मुख्यतः मुस्लिम समुदाय, जो पहाड़ी जंगलों में खानाबदोश जीवन जीते हैं।
- टोंगिया: हिंदू समुदाय का हिस्सा, जो उत्तराखंड व उत्तर प्रदेश के सीमांत जंगलों में रहते हैं।
- दोनों का जीवन पूरी तरह जंगल, पशुपालन और वन संसाधनों पर आधारित है।
दोनों ही समुदायों के प्रतिनिधियों ने सहारनपुर की बेहट तहसील में एक जन सुनवाई में अपनी बातें रखीं, जिसे अखिल भारतीय वन जन श्रमजीवी यूनियन और ऑल इंडिया यूनियन ऑफ फॉरेस्ट वर्किंग पीपल ने मिलकर आयोजित किया था।
जंगल में पैदा, जंगल में उजड़ते लोग
गुलाम नबी और उनके साथियों का कहना है कि:
- उनकी पीढ़ियों से पशुपालन होता आ रहा है
- लेकिन अब सरकारें उन्हें गौ-तस्कर, अवैध अतिक्रमी और अपराधी साबित करने पर तुली हैं
- उत्तर प्रदेश सरकार ने 25,000 हेक्टेयर जंगल सेना को फायरिंग प्रैक्टिस के लिए दे दिया, यह कहकर कि वहां कोई बस्ती नहीं
“हमारे पास सौ साल के टैक्स और परमिट के काग़ज़ हैं, लेकिन हमारी गाय, भैंस अब सरकार के लिए अपराध बन गई है।” — गुलाम नबी
जानवर अब ‘साक्ष्य’ हैं, गुर्जर अब ‘आरोपी’
आज जहां गाय को लेकर एक तरफ हिंसक भीड़ें लिंचिंग कर रही हैं — वहीं वन गुर्जरों पर केस दर्ज हो रहे हैं।
गुलाम नबी का आरोप है कि कुछ संगठनों और व्यक्तियों (जैसे ‘राकेश उत्तरखंडी गैंग’) द्वारा:
- रास्ता रोककर वसूली की जाती है
- पशु ले जाने पर मारपीट की जाती है
- गौशालाओं में जानवर जबरन डाले जाते हैं
“हमारी गायें कभी RSS वालों की गौशालाओं में नहीं जातीं, हम खुद पालन करते हैं, खुद रहते हैं।”
शिवालिक जंगल: सेना बनाम समाज
उत्तर प्रदेश सरकार ने सहारनपुर की शिवालिक पहाड़ियों में सेना को बम प्रैक्टिस के लिए ज़मीन सौंप दी।
- वास्तविकता: यहां लगभग 2000 वन गुर्जर परिवार रहते हैं
- प्रभाव:
- गर्भवती महिलाओं और मवेशियों पर बमबारी का असर
- पशुओं की असमय मृत्यु
- फसल और जंगल का नुकसान
“पहले छोटी फायरिंग होती थी, अब 55-60 किलो के बम गिराए जा रहे हैं। हमारे मवेशी मरते हैं, गर्भपात हो जाते हैं।”
टोंगिया समाज की भी वही पीड़ा
टोंगिया समाज — जिनका जीवन जंगल और लकड़ी पर आधारित है — वही शिकायत करता है:
- उन्हें “अवैध अतिक्रमणकारी” कहकर बेदखल किया जा रहा है
- लेकिन वे कहते हैं:
“जहां टोंगिया और गुर्जर रहते हैं, वहीं जंगल है। जहां हम नहीं हैं, वहां जंगल बिक गया है।”
सवाल सरकार से
- अगर इन समुदायों के पास सौ साल से टैक्स रसीद और परमिट हैं, तो उन्हें कानूनन अधिकार क्यों नहीं दिया जा रहा?
- अगर भारत वन अधिकार कानून (2006) का हिस्सा है, तो टोंगिया और गुर्जरों को उसका लाभ क्यों नहीं?
- क्यों सेना के लिए ज़मीन देने से पहले वहां की जनगणना या रेसिडेंसी स्टेटस की जांच नहीं की गई?
निष्कर्ष: क्या यह “विकास” है या “विस्थापन”?
वन गुर्जर और टोंगिया — दोनों ही भारत के सबसे पुराने और प्रकृति से जुड़े समुदायों में हैं।
इनका जंगल में रहना जंगल के संरक्षण की गारंटी है।
लेकिन अब ये वही जंगल सेना, कॉरपोरेट या गौ-राजनीति की ज़द में है।
“हमारे जैसे लोगों के लिए साल में दो बार घर बनाना पड़ता है। हम मिट्टी, धान की पुआल, बांस और मेहनत से घर बनाते हैं—और सरकार उसे उजाड़ देती है।” — बेहट की जन सुनवाई में एक वक्ता
यह समय है इन आवाज़ों को मुख्यधारा में लाने का — ताकि विकास के नाम पर विनाश की योजनाओं पर रोक लगे।