August 9, 2025 1:05 pm
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टोंगिया और वन गुज्जरों की लड़ाई: जंगल जिनका घर है, आज वही उजाड़े जा रहे हैं

उत्तर प्रदेश-उत्तराखंड सीमा पर टोंगिया और वन गुज्जर समुदायों को जंगल से जबरन बेदखल किया जा रहा है। जानिए उनकी लड़ाई की पूरी कहानी इस स्पेशल रिपोर्ट में।

जंगल पर दावेदारी, सेना का कब्जा हटाने सहित बुनियादी हकों की मांग हुई बुलंद जनसुनवाई में

भारत के जंगल अगर आज भी बचे हुए हैं, तो उसके पीछे दो समुदायों की सदी पुरानी उपस्थिति और मेहनत है—टोंगिया और वन गुज्जर। एक हिंदू समुदाय, दूसरा मुसलमान। दोनों की किस्मत अब एक जैसे संकट में है। जंगल जो कभी उनका घर था, अब उनके खिलाफ हो गया है। और इस संकट की सबसे बड़ी वजह है—सरकार और उसकी मुनाफाखोर नीतियाँ।

कौन हैं टांगिया और वन गुज्जर?

  • टोंगिया समुदाय को अंग्रेजों ने 1930 के दशक में जंगलों को बसाने और खेती योग्य बनाने के लिए शिवालिक पहाड़ियों में भेजा था।
  • वन गुज्जर, मूलतः पशुपालक मुस्लिम समुदाय, जो सदियों से जंगलों के भीतर रहते आ रहे हैं, अपने पशुओं के साथ घुमंतु जीवन जीते हैं।

इन दोनों समुदायों का जंगलों से रिश्ता आधिकार का नहीं, अस्तित्व का है।

संकट की जड़: जंगलों का सैन्य उपयोग और कॉर्पोरेट हित

2022 में उत्तर प्रदेश सरकार के वन विभाग ने शिवालिक रेंज का 80–90% हिस्सा सेना को सौंप दिया—फायरिंग रेंज के लिए। दावा किया गया कि यह क्षेत्र “निर्जन” है। जबकि वहाँ 2000 से अधिक वन गुज्जर परिवार और सैकड़ों टांगिया परिवार रहते हैं।

सेना की गोलाबारी, बम परीक्षण, और विस्फोटों ने इन परिवारों के जीवन को तबाह कर दिया है:

  • गर्भवती महिलाओं और नवजात बच्चों पर सीधा असर।
  • पशुओं की मौत।
  • फसलों और घरों का नुकसान।

“आर्मी का काम अपनी जनता पर गोलियां चलाना नहीं होता”

ऑल इंडिया यूनियन ऑफ फॉरेस्ट वर्किंग पीपल की महासचिव रोमा ने जनसुनवाई में कहा:

“वन विभाग को NOC देने का अधिकार नहीं। ये संवैधानिक अधिकारों का हनन है। वन अधिकार कानून 2006 लागू होना चाहिए। जंगलों को सैन्य इस्तेमाल के नाम पर जनता से छीनना जनविरोधी है।”

कोव‍िड के दौर में “आपदा को अवसर” बना दिया गया

कोरोना के दौर में जब शहरों में लॉकडाउन था, जंगलों में ऑक्सीजन भरपूर थी। लेकिन इसी समय सरकार ने जंगलों की कब्जेदारी तेज कर दी। कोई मेडिकल सुविधा नहीं, कोई राहत नहीं—सिर्फ बेदखली और भय।

रोती आंखें, बहती गाथाएं

नूर मोहम्मद की कहानी:

“गोले गिरने से मेरी बहू, गर्भ में सात महीने का बच्चा, मेरी गाय, भैंसें—सब मारे गए। उसके बाद भी फायरिंग बंद नहीं हुई। 15 दिन तक गोलियां चलती रहीं।”

गुलाम नबी, वन गुज्जर नेता:

“पशु हमारी जिंदगी हैं। हमारे पास 100 साल के रिकॉर्ड हैं कि हम पशुपालक हैं। आज वही पशु हमारे खिलाफ सबूत बन रहे हैं। हमारी गाय पर केस हो रहा है, हमें RSS वाले गोरक्षक बता रहे हैं।”

टोंगिया समाज: अधिकारहीन नागरिक

टांगिया समुदाय आज भी पंचायत चुनावों में वोट नहीं डाल सकता। वे “फॉरेस्ट ड्वेलर” हैं, नागरिक नहीं माने जाते। जंगल बसाने वाले आज जंगल से बेदखल किए जा रहे हैं।

राजनीतिक प्रतिनिधि क्या कर रहे हैं?

सांसद इकरा हसन (कैराना):

“ये लड़ाई एक दिन की नहीं। सरकारें नहीं सुन रही, पर हम पीछे नहीं हटेंगे। जिस तरह से आप सबने संगठित होकर फाइल तैयार की है, उससे हमारी आवाज़ संसद तक जाएगी।”

चेयरमैन अब्दुर रहमान (बेहट):

“सोलर लाइट तक वन विभाग ने लगाने नहीं दी। हम मजबूती से लड़ेंगे, सब जरूरी सुविधाएँ दिलवाएँगे।”

हिंदू-मुसलमान का एकजुट प्रतिरोध

इस जनसुनवाई ने साबित किया कि ज़मीन पर हिंदू-मुस्लिम विभाजन नहीं है। संघर्ष और दुख में दोनों साथ हैं। एक ही नारा गूंजा:

“अगर जंगल बचाने हैं, तो टोंगिया और वन गुज्जरों को बचाना होगा।”

निष्कर्ष: यह जंगल उन्हीं का है

  • टोंगिया और वन गुज्जर भारत के जंगलों के संरक्षक हैं, आवेदक नहीं
  • उन्हें मुनाफा आधारित कॉर्पोरेट लैंड ग्रैब और सैन्य प्रोजेक्ट्स से बेदखल किया जा रहा है।
  • यह एकता और प्रतिरोध की लड़ाई है—जल, जंगल, जमीन की।
  • वन अधिकार कानून और संवैधानिक दावेदारी को लागू करना ही एकमात्र रास्ता है।

भाषा सिंह

1971 में दिल्ली में जन्मी, शिक्षा लखनऊ में प्राप्त की। 1996 से पत्रकारिता में सक्रिय हैं।
'अमर उजाला', 'नवभारत टाइम्स', 'आउटलुक', 'नई दुनिया', 'नेशनल हेराल्ड', 'न्यूज़क्लिक' जैसे
प्रतिष्ठित मीडिया संस्थानों

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