August 8, 2025 11:26 pm
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शाहिद आज़मी से लेकर मुरलीधर तक, वे वकील जिन्होंने 12 बेक़सूरों को बचाया

मुंबई ट्रेन बम धमाकों के बारह अभियुक्तों की लड़ाई में अलग-अलग समय पर कई वकीलों का संघर्ष व दलीलें कई मोर्चों पर रहीं। Sunday Offbeat में उस कानूनी जंग का आगाज़ करने और उसे अंजाम तक पहुंचाने वाली दो अद्भुत शख्सियतों के बारे में चर्चा

वे कौन थे जिन्होंने बेकसूरों को फांसी से बचाने की कानूनी जंग लड़ी | Mumbai Train Blast

क्या आप जानते हैं कि 2006 के मुंबई ट्रेन धमाकों में जिन 12 लोगों को बांबे हाई कोर्ट ने बेक़सूर मानते हुए उन्हें बरी कर दिया, उनके वकीलों में से एक कौन थे- सुप्रीम कोर्ट के सीनियर एडवोकेट और ओडिशा हाई कोर्ट के पूर्व मुख्य न्यायाधीश एस. मुरलीधर। देश में आपको इस बात के उदाहरण गिने-चुने ही मिलेंगे जब कोई पूर्व चीफ जस्टिस रिटायर होने के बाद फिर से वकील का चोगा पहनकर मामलों की पैरवी करने के लिए अदालतों में खड़ा हो जाए। वरना ज्यादातर जज रिटायर होने के बाद किसी कमीशन, या आर्बिट्रेशन या कहीं और कोई पोस्ट पाकर आराम से वक़्त गुज़ार देते हैं। लेकिन एस मुलीधर उन लोगों में से नहीं। मुरलीधर अलग मिजाज के इंसान हैं, यह जज रहते उनके दिए गए फैसलों से भी समझा जा सकता है, खास तौर पर दिल्ली हाई कोर्ट के जज के रूप में।

शाहिद आज़मी सबसे पहले

लेकिन क्या आप यह भी जानते हैं कि इन 12 लोगों के लिए सबसे पहले कानूनी लड़ाई लड़ना शुरू किसने किया था, वह भी उस समय जब सारी दुनिया उन्हें 189 निर्दोष ट्रेन यात्रियों को मारने वाले आतंकवादियों को तौर पर देख रही थी, दुत्कार रही थी। वे और उनके परिवार यातना झेल रहे थे। वह और कोई नहीं बल्कि शाहिद आज़मी थे। शाहिद ने यह केस उस समय अपने हाथ में लिया था, जिन दिनों मुंबई के बाद, हैदराबाद, औरंगाबाद, मालेगांव, दिल्ली आदि जगहों पर भी विस्फोट हुए थे और उनके मामलों में कई मुस्लिमों को गिरफ्तार किया गया था। उस समय माहौल ऐसा बना दिया गया था कि कई जगहों पर बार एसोसिएशनों से ऐसी घटनाओं के आरोपियों के केस न लड़ने के बाक़ायदा प्रस्ताव तक पारित कर दिए थे। लोग दोष साबित होने से पहले ही सजा भुगतने लगे थे।

ऐसे समय में शाहिद ने यह केस अपने हाथ में लिया था क्योंकि उन्होंने अपने जीवन का मक़सद ही उन बेक़सूर लोगों को बचाने का बना रखा था जिन्हें आतंकवाद के झूठे मामलों में फंसाया गया था। आखिर शाहिद खुद भी तो इसी बात का शिकार हुए थे।

काल कोठरी से शुरुआत

आप जानते हैं न, शाहिद कौन हैं? वहीं जिन्होंने महज सात साल की वकालत में ऐसे 17 बेक़सूर लोगों को बचाया था जिन्हें किसी न किसी कड़े क़ानून में आतंकवाद के आरोप में पकड़कर जेल में डाल दिया गया था। इन्हीं शाहिद आजमी के जीवन पर 2012 में अनुराग कश्यप व हंसल मेहता ने चर्चित हिंदी फिल्म शाहिद बनाई थी जिसमें शाहिद का किरदार राजकुमार राव ने निभाया था।

जानी-मानी पत्रकार राना अय्यूब ने गुजरात में 2002 के बाद हुई फर्जी मुठभेड़ों के स्टिंग ऑपरेशन्स पर जो किताब गुजरात फ़ाइल्स लिखी थी उसे उन्होंने जिन लोगों को समर्पित किया था उनमें शाहिद आजमी भी थे।

लेकिन शाहिद शौक से वकील नहीं बने थे। वह खुद भी उस नफ़रत का शिकार थे जिसमें पुलिस किसी भी मामले में किसी भी मुस्लिम युवक को पकड़कर जेल में डाल दे रही थी। शाहिद जह महज 14 साल के थे तब 1992 के मुंबई दंगों में उन्हें पकड़कर जेल में डाल दिया गया था। बालिग नहीं थे इसलिए उस समय तुरंत छूट गए। मुस्लिम विरोधी सिस्टम, समाज में घर चुकी नफरत और दक्षिणपंथ का उभार, उस समय वे नासूर थे जिन्होंने कई मुस्लिम युवाओं को रास्ते से भटकाया। शाहिद भी भटके लेकिन तुरंत ही सही रास्ते पर लौट आए। लेकिन फिर 1996 में उन्हें उस समय कुख्यात हो चुके टाडा कानून में गिरफ्तार कर लिया गया। इस बार उन पर नेताओं की हत्या की साजिश जैसे गंभीर आरोप थे। उन्हें सात साल जेल में बिताने पड़े और आखिरकार 2001 में सुप्रीम कोर्ट ने उन्हें बरी कर दिया।

जिंदगी को मिला नया मकसद

दिल्ली की तिहाड़ जेल में बिताए सालों ने उन्हें जिंदगी का नया मकसद दिया। जेल में रहते हुए ही उन्हें अपने जैसे कई निर्दोष लोग सींखचों में बंद मिले। आजमी ने जेल में रहते हुए पढ़ाई की- ग्रेजुएशन और फिर पोस्ट ग्रेजुएशन। जेल से बाहर आकर उन्होंने कानून की पढ़ाई की और वकील बने। 2003 से वह वकालत करने लगे थे और उन लोगों के मामले हाथ में लेने लगे जो उनकी ही तरह दमनकारी कानूनों में फंसाये गए थे।

न्याय के लिए शहादत

2006 के मुंबई ट्रेन धमाकों में आरोपी बनाए गए 12 लोगों का मामला भी उन्होंने इसी वजह से हाथ में लिया। उन्होंने उसके बाद औरंगाबाद और मालेगांव विस्फोटों के अभियुक्तों के मामले भी हाथ में लिए। फिर वह नवंबर 2008 में हुए मुंबई धमाकों में पकड़े गए फहीम अंसारी का मामला भी लड़ रहे थे जब फरवरी 2010 में मुंबई के कुर्ला में उनके ऑफिस में ही उनकी हत्या कर दी गई। अगस्त 2012 में सुप्रीम कोर्ट ने फहीम अंसारी को सबूतों के अभाव में बरी कर दिया।

हंसल मेहता की फिल्म शाहिद भारत में अक्टूबर 2013 में रिलीज हुई और विडंबना देखिए कि सिस्टम को बेनकाब करने वाली इस फिल्म के लिए हंसल मेहता को साल 2013 का सर्वश्रेष्ठ निर्देशक का और राजकुमार राव को सर्वश्रेष्ठ अभिनेता का राष्ट्रीय पुरस्कार मिला।

शाहिद की मौत के बाद 2006 ट्रेन धमाकों का केस दूसरे वकीलों ने देखा। लेकिन सितंबर 2015 में विशेष मकोका अदालत ने ट्रेन धमाकों में 12 लोगों को दोषी करार दे दिया और पांच को फांसी व सात को उम्र कैद की सजा सुनाई। कानूनी प्रक्रिया के तहत फांसी की सजा की पुष्टि के लिए मामला बांबे हाईकोर्ट में पहुंचा।

मुरलीधर की पैरवी

जस्टिस एस मुरलीधर ने अगस्त 2023 में ओडिशा हाई कोर्ट के चीफ जस्टिस से रिटायर होने के बाद फिर से वकालत शुरू की। अक्टूबर 2023 में ही उन्हें सुप्रीम कोर्ट ने वरिष्ठ वकील का दर्जा दे दिया। उन्होंने फिर से वकालत शुरू करने के बाद जो मामले हाथ में लिए, उनमें 2006 के मुंबई ट्रेन धमाकों का मामला भी था। उसके बाद से मामले की हाई कोर्ट में सुनवाई के दौरान उनकी दलीलों की 21 जुलाई 2025 को आए फैसले में अहम भूमिका रही जिसमें 12 अभियुक्तों को बरी कर दिया गया और वे सभी 18 साल बाद जेल से बाहर आ गए।

एस मुरलीधर की ख्याति क्या है, यह इस बात से समझा जा सकता है उनके रिटायरमेंट के बाद कानून के तमाम जानकारों का कहना था कि he was one of the boldest judge supreme court never had. दिल्ली हाई कोर्ट में जज रहते उनका कई अहम फैसलों में योगदान रहा। उनमें हरियाणा में मिर्चपुर दलित विरोधी हिंसा व हत्याएं, मेरठ का हाशिमपुरा नरसंहार, 1984 के सिख नरसंहार, और IPC की धारा 377 को संविधान के अनुच्छेद 21 के खिलाफ बताने वाला फैसला शामिल है। जितने चर्चित उनके फैसले रहे, उतना ही सनसनीखेज उनका दिल्ली हाईकोर्ट से आधी रात को पंजाब व हरियाणा हाई कोर्ट में तबादला भी रहा। साल 2020 में दिल्ली को सांप्रदायिक हिंसा में झोकने की साजिश में जब उन्होंने भाजपा नेता कपिल मिश्रा व अन्य लोगों के खिलाफ तनाव भड़काने का मामला दर्ज करने के आदेश पुलिस को दिए तो उसी रात उनका तबादला चंडीगढ़ कर दिया गया। कानूनी व राजनीतिक हलकों में इस तबादले की कड़ी भर्त्सना हुई। बाद में उसी साल दिसंबर में उन्हें ओडिशा हाई कोर्ट का मुख्य न्यायाधीश नियुक्त कर दिया गया।

जेल से आजादी

मुंबई बम धमाकों के इन बारह अभियुक्तों की लड़ाई में शाहिद व मुरलीधर के अलावा भी अलग-अलग समय पर कई वकीलों का संघर्ष व दलीलें कई मोर्चों पर रहीं। इनमें युग मोहित चौधरी, नित्या रामकृष्णन, एस नागमुत्थु, जैसे सीनियर एडवोकेट भी शामिल थे।यहां हमने बस उस कानूनी जंग का आगाज़ करने और उसे अंजाम तक पहुंचाने वाली दो अद्भुत शख्सियतों के बारे में चर्चा की है।

हालांकि 24 जुलाई को सुप्रीम कोर्ट ने बांबे हाई कोर्ट के फैसले पर स्टे दे दिया लेकिन अभियुक्तों को वापस जेल नहीं भेजा। न तो महाराष्ट्र सरकार और न ही सुप्रीम कोर्ट की मंशा इन लोगों को जेल में फिर से भेजने की थी। कहीं न कहीं, यह सबके जेहन में है कि ये लोग बेक़सूर ही थे।महाराष्ट्र सरकार और सुप्रीम कोर्ट, दोनों की ही बड़ी चिंता यह थी कि हाई कोर्ट के फैसले को कहीं एक मिसाल के तौर पर आगे आने वाले फैसलों में अदालतें न ले लें क्योंकि हाई कोर्ट ने पुलिस व जांच एजेंसियों के तौर-तरीकों के बारे में काफी सख्त टिप्पणियां की थीं। सुप्रीम कोर्ट का स्टे दरअसल इसी बिनाह पर है और वह उन 12 लोगों के बारे में कुछ नहीं कहता जो बड़े संघर्ष के बाद अपनी बेगुनाही साबित कर पाए हैं।

उपेंद्र स्वामी

पैदाइश और पढ़ाई-लिखाई उदयपुर (राजस्थान) से। दिल्ली में पत्रकारिता में 1991 से सक्रिय। दैनिक जागरण, कारोबार, व अमर उजाला जैसे अखबारों में लंबे समय तक वरिष्ठ समाचार संपादक के रूप

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