June 30, 2025 10:56 pm
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एवरेस्ट की चढ़ाई adventure से ज्यादा entertainment

नेपाल में माउंट एवरेस्ट की चढ़ाई का एक और सीजन खत्म हुआ, और इसने फिर कई नई चुनौतियां पेश कीं। क्या माउंटेनियरिंग समुदाय बदलती स्थितियों को स्वीकार करने के लिए तैयार है या फिर भविष्य अनिश्चित ही है... पत्रकार उपेंद्र स्वामी की स्पेशल स्टोरी

हिमालय समझा रहा है, कुदरत से ज़्यादा खिलवाड़ अच्छा नहीं

शिखर तक के रास्ते पर लगी सीढ़ियां व रस्सियां हटा ली गई हैं। माउंट एवरेस्ट यानी दुनिया की सबसे ऊंची चोटी पर चढ़ाई का इस साल यानी 2025 का अप्रैल-मई की गर्मियों का सीजन आधिकारिक रूप से समाप्त हो गया है। तीन ही दिन पहले यानी 29 मई को माउंटेनियरिंग कम्युनिटी ने एवरेस्ट पर सबसे पहले चढ़ाई की 72वीं सालगिरह मनाई थी। साल 1953 में इसी दिन एडमंड हिलेरी और तेनजिंग नॉर्गे ने एवरेस्ट पर पहली बार कदम रखे थे।

बेबाक भाषा के संडे ऑफबीट में आपका स्वागत है। देश-दुनिया में मची उठापटक के बीच आज बात हिमालय की औऱ हिमालय जैसे ही विशाल व विकट पर्यावरण के मुद्दे की।

इस साल नेपाल के पर्वतारोहण विभाग ने 57 देशों के 468 विदेशी पर्वतारोहियों को 8849 मीटर यानी 29032 फुट ऊंचे एवरेस्ट शिखर पर चढ़ने के परमिट जारी किए थे। जाहिर है कि तकरीबन इतने ही नेपाली शेरपा गाइड भी उनके साथ शिखर पर जाने वाले थे। इनमें से कितने कामयाब रहे, इसका आंकड़ा एकाध दिन में आएगा। हालांकि नेपाल टूरिज्म के डायरेक्टर हिमाल गौतम का कहना था कि इस साल नेपाल की तरफ से यानी एवरेस्ट के दक्षिणी सिरे से कुल 694 लोग चोटी पर पहुंचे जिनमें 257 विदेशी पर्वतारोही, नौ नेपाली पर्वतारोही और 421 शेरपा व गाइड और रोप लगाने वाली टीमों के सात लोग शामिल थे। एवरेस्ट के उत्तरी सिरे यानी चीन की तरफ से कितने लोग गए, उनकी संख्या का पता नहीं। लेकिन उनकी अंदाजन संख्या जोड़ ली जाए तो इस साल तकरीबन आठ सौ लोग चोटी पर पहुंचे होंगे। नेपाल की तरफ से चढ़ने वालों को नीचे आकर नेपाल के पर्वतारोहण विभाग को अपनी चढ़ाई का और अपने द्वारा फैलाए गए कचरे को इकट्ठा करके वापस नीचे ले आने का सुबूत देना होता है। तभी उन्हें आधिकारिक प्रमाणपत्र एवरेस्ट की चढ़ाई का मिलता है।

इस साल हादसे कम हुए, पर्वतारोहियों की जानें कम गईं और मौसम की मार तीखी तो रही, लेकिन प्राणघातक नहीं बनी। लेकिन इसके बावजूद एवरेस्ट पर चढ़ाई को लेकर बन रही चिंताएं कम नहीं हुई हैं, बल्कि उनके नए आयाम ही सामने आए हैं।

मई का महीना खत्म होते ही सीजन खत्म होने से कुछ ही दिन पहले सैकड़ों पर्वातारोही शिखर पर पहुंचने के लिए कतार लगाए खड़े थे। हालांकि मई के बीच के दिनों में कई पर्वतारोही दुनिया की सबसे ऊंची चोटी पर पहुंचने में कामयाब रहे थे, लेकिन उसके बाद मौसम कई दिनों तक खराब रहा और कई पर्वातारोहियों को नीचे के कैंपों में या बेस कैंप तक लौटना पड़ा। इनमें नेपाल के शेरपा कामी रीता भी थे जो सबसे ज्यादा बार एवरेस्ट पर चढ़ने के अपने ही वर्ल्ड रिकॉर्ड को तोड़ने की फिराक में थे। लिहाजा आखिर के दिनों में फिर से चढ़ाई की मारामारी रही। कामी रीता भी आखिरकार 27 मई को चोटी पर पहुंचे जो एवरेस्ट पर उनकी 31वीं चढ़ाई थी। एवरेस्ट अभियान से जुड़े लोगों का कहना है कि इस साल एक ही दिन में सबसे ज्यादा लोग 18 मई को चोटी पर पहुंचे। हालांकि मौसम के लिहाज से चढ़ाई के लिए इस साल सबसे अच्छा दिन 27 मई का रहा, जिस दिन 55 साल के कामी रीता ने चढ़ाई की। वैसे रीता के अलावा एक और पर्वतारोही ने चढ़ाई का अपना ही विश्व रिकॉर्ड सुधारा और वह हैं ब्रिटेन के 51 साल के केंटन कूल जिन्होंने किसी भी विदेशी यानी गैर-नेपाली पर्वतारोही के चोटी पर पहुंचने के अपने ही रिकॉर्ड को तोड़ा और इस बार 19वीं बार चोटी पर पहुंचे। दरअसल, अब डर यही है कि एवरेस्ट की चढ़ाई नए रिकॉर्डों और नए प्रयोगों की जमीन होती जा रही है, जिसके बारे में खुद कामी रीटा कहते हैं कि पर्वतारोहण अब रोमांच के बजाय लग्जरी और मनोरंजन का जरिया हो गया है। आधुनिक उपकरणों ने चढ़ाई को आसान बनाया है और जलवायु परिवर्तन ने वहां के मौसम को विकट व अनिश्चित। इन दोनों की होड़ ने कई नए खतरे पैदा किए हैं।

कई पर्वतारोहियों का कहना था कि इस साल भी मौसम सबसे बड़ी बाधा रही। छह बार शिखर पर पहुंच चुके जेनजेन लामा का कहना था कि मौसम लगातार अनिश्चित सा होता जा रहा है। पूर्वानुमान कहता है कि अगले दिन मौसम बहुत अच्छा होगा लेकिन चढ़ाई की सारी तैयारी के बाद अगले दिन पूर्वानुमान के उलट मौसम बिगड़ जाता है और हर घंटे खराब ही होता चला जाता है।

शिखर पर पहुंचने के लिए अनुकूल मौसम के दिन जब कम हो जाते हैं तो एक ही दिन ज्यादा लोग ऊपर तक पहुंचने की कोशिश करते हैं। हिलेरी स्टेप के आगे शिखर तक एक ही सेफ्टी रोप से जुड़े पर्वतारोही कतार में लगे रहते हैं जिसे अक्सर एवरेस्ट ट्रैफिक जाम के तौर पर पुकारा जाता है। हर बार मौसम भी वहां पूर्वानुमान के ही अनुरूप काम नहीं करता। वह अपनी चाल-ढाल यकायक बदल भी लेता है। अब उपकरण आधुनिक हुए हैं तो चढ़ाई में अनुभवी पर्वतारोही भी होते हैं और नौसिखए भी। इसका भी असर पढ़ता है क्योंकि पहाड़ों पर अनुभव की जगह तो कोई नहीं ले सकता। अब यह आवाज उठ रही है कि एवरेस्ट पर चढ़ाई के लिए केवल अनुभवी पर्वतारोहियों की ही परमिट मिलें। नेपाल सरकार भी इस तरह का कानून लाने पर विचार कर रही है कि जिन पर्वतारोहियों ने पहले नेपाल में 7000 फुट से ऊंची कम से कम एक चोटी पर चढ़ाई कर रखी हो, उन्हें ही एवरेस्ट पर चढ़ने का परमिट दिया जाए।

वैसे तो मानसून के बाद शरद सीजन में भी कुछ लोग एवरेस्ट पर चढ़ने की कोशिश करते तो हैं लेकिन उनकी संख्या कम ही होती है क्योंकि उस समय खतरा ज्यादा होता है। इस साल तो एक और जोखिम यह है कि इस शरद सीजन से नेपाल ने एवरेस्ट पर चढ़ाई के लिए परमिट की कीमत 11 हजार डॉलर से बढ़ाकर 15 हजार डॉलर यानी करीब 12.8 लाख रुपये कर दी है। हो सकता है कि बढ़ता खर्च भी एवरेस्ट चढ़ने वालों की संख्या को कम कर दे। यह तो केवल परमिट की कीमत है, कुल खर्चा तो इसका तीन गुना या उससे भी ज्यादा हो जाता है।

पहली बार 1994 में एवरेस्ट पर चढ़ने वाले कामी रीता का यह भी कहना है कि पर्वतों पर बढ़ते जोखिम के कारण नेपाल में युवाओं में शेरपा बनने का उत्साह कम होता जा रहा है। वह बताते हैं कि पहले जून के शुरू तक कैंप 2 पर बर्फ रहती थी लेकिन अब वहां मई में ही पानी बहने लगता है जो कई बार जानलेवा हो जाता है। इसी तरह खुंबु आइसफॉल के इलाके को भी बाद के दिनों में पार करना जोखिम भरा होता जा रहा है। कामी रीता हर साल चोटी पर जाते हैं और उनके जैसे शेरपाओं का अनुभव बाकी विदेशी पर्वतारोहियों की कामयाबी में अहम भूमिका निभाता है। कामी रीता एवरेस्ट के अलावा दुनिया की बाकी ऊंची चोटियों पर भी चढ़ चुके हैं, जैसे कि के2, मनासलु व लाहोत्से आदि। उनके पिता भी हिमालय के सबसे शुरुआती शेरपा गाइडों में से थे। लेकिन कामी रीता खुद अपने बच्चों को शेरपा नहीं बनाना चाहते। इससे अंदाजा मिल जाते हैं कि ऊपर से आसान नजर आ रही चढ़ाई की असलियत क्या है।

इस साल एवरेस्ट पर चढ़ाई के दौरान तीन मौतों की जानकारी है, जिनमें एक भारतीय पर्वतारोही सुब्रत घोष भी शामिल है। यह संख्या पिछले सालों की तुलना में कम है। कुछ लोग कहते हैं कि बेहतर प्रशिक्षण, अच्छे उपकरण, ऑक्सीजन की उपलब्धता, अनुभवी गाइड और मौसम के बेहतर पूर्वानुमानों ने पर्वतों को ज्यादा सुरक्षित बनाया है, लेकिन उतना ही बड़ा जोखिम जलवायु परिवर्तन, कम होती बर्फ और पर्वतारोहियों की अनुभवहीनता ने जोड़ भी दिया है। इस बार भी कई लोगों को हवाई रेस्क्यू करना पड़ा। हालांकि इनकी ठीक-ठीक संख्या के बारे में कोई जानकारी नहीं दी जाती।

लेकिन किसी भी हाल में एवरेस्ट की जीतने की होड़ में दुनिया की सबसे ऊंची चोटी कई नए प्रयोगों का भी अड्डा बन गई है। ब्रिटेन के चार पर्वतारोहियों ने जेनॉन गैस का इस्तेमाल करके तेजी से शिखर पर पहुंचने का काम किया। इन लोगों ने लंदन से रवाना होने के पांचवे दिन ही चोटी पर कदम रख लिए थे। लेकिन इन्होंने पर्वतारोहियों को एक और कृत्रिम मदद का रास्ता दिखा दिया। वे एक हफ्ते से भी कम समय में फिर से घर पहुंच चुके थे। इस रास्ते को लेकर पर्वतारोहण के क्षेत्र में गंभीर बहस है। इन लोगों ने जेनॉन थेरेपी के अलावा ब्रिटेन में हाइपोक्सिक ट्रेनिंग की और ठीक उस समय नेपाल पहुंचे जब मौसम और रास्ता तेजी से शिखर पर पहुंचने के लिए माफिक थे। एक और पर्वतारोही एंड्र्यू उशकोव ने कथित तौर पर न्यूयार्क से एवरेस्ट की चोटी तक का सफर महज चार दिन में पूरा किया और उसके लिए उन्होंने बेस कैंप से ही सप्लीमेंटरी ऑक्सीजन भी इस्तेमाल की और शेरपाओं की दो टीम भी।

जर्मनी की अंजा ब्लाखा ने बिना कृत्रिम ऑक्सीजन या निजी शेरपा की मदद लिए एवरेस्ट की चोटी पर पांव रखे। उन्होंने आठ हजार मीटर से ऊंची बारह चोटियों पर ऑक्सीजन की मदद लिए बिना अपने बूते फतह हासिल की है। यह इस साल की सबसे शानदार उपलब्धि रही।

दुनिया की सबसे ऊंची चोटी पर कदम रखने रोमांच का चरम माना जाता है। लेकिन यहां यह याद रखना जरूरी है कि वह दुनिया का सबसे संवेदनशील इलाका भी है, बेहद नाजुक। उस पर विजय पाने के लिए उसकी क्षमताओं को चुनौती देने में कोई समझदारी नहीं है।

उपेंद्र स्वामी

पैदाइश और पढ़ाई-लिखाई उदयपुर (राजस्थान) से। दिल्ली में पत्रकारिता में 1991 से सक्रिय। दैनिक जागरण, कारोबार, व अमर उजाला जैसे अखबारों में लंबे समय तक वरिष्ठ समाचार संपादक के रूप

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