चुनाव आयोग की प्रक्रिया पर विपक्षी दलों ने उठाया गंभीर सवाल
बिहार में नोटबंदी के बाद अब वोटबंदी?
चुनाव आयोग के हालिया आदेश के बाद बिहार में यही सवाल उठ रहा है। विपक्ष का आरोप है कि यह पूरी कवायद दलित, पिछड़े, गरीब और प्रवासी वोटरों को वोट देने के अधिकार से वंचित करने की साजिश है।
आखिर बिहार जीतने के लिए मोदी सरकार और चुनाव आयोग ये कौन सी बिसात बैठा रही है, जिसमें लोगों को वोट डालने से ही वंचित करने की साजिश हो रही है। इसके खिलाफ विपक्षी पार्टियों में मोर्चा खोल लिया है। 9 जुलाई को राष्ट्रीय मजदूर हड़ताल से इसे भी जोड़कर पूरे बिहार में आंदोलन करने का फैसला किया गया है।
यह लोकतंत्र में मतदान के अधिकार को बचाने का सवाल है। बिहार के 2 करोड़ से ज्यादा लोग बाहर काम करते हैं। दलित, वंचित, महिलाओं और प्रवासी मजदूरों से वोट डालने का अधिकार छीनने के लिए चुनाव आयोग ने बिहार के मतदाताओं पर यह गाज गिराई है।
यह एक असंभव सा मिशन है, 8 करोड़ के करीब बिहार के मतदाताओं की वोटर लिस्ट का सख्त रिवीजन महज एक महीने से भी कम समय में करने का फैसला आखिर क्यों किया गया। ऐसी क्या urgency थी।
क्या है पूरा मामला?
चुनाव आयोग ने बिहार में विशेष गहन पुनरीक्षण (intensive revision) का आदेश जारी किया है। इसमें कहा गया है:
- 2003 के बाद जिनका नाम वोटर लिस्ट में जुड़ा है, उन्हें न सिर्फ अपना जन्म प्रमाणपत्र देना होगा बल्कि माता-पिता के जन्म का प्रमाण और निवास का प्रमाण भी देना होगा।
- 1987 से पहले जन्मे लोगों को भी अपना जन्म प्रमाण देना होगा।
- 1 दिसंबर 2004 के बाद जन्मे लोगों को स्वयं का और माता-पिता दोनों का प्रमाण देना होगा।
एक महीना, आठ करोड़ वोटर
यह पूरी प्रक्रिया सिर्फ एक महीने में पूरी की जानी है, जबकि बिहार में लगभग 8 करोड़ वोटर हैं।
विपक्ष का सवाल है:
- चुनाव के कुछ महीने पहले इतनी जल्दबाजी क्यों?
- यह प्रक्रिया मानसून के मौसम और मजदूरी के सीजन में क्यों लाई गई जब लोग अपने गांवों में नहीं हैं?
- क्या यह गुप्त NRC नहीं?
क्या कह रहे हैं विपक्षी नेता?
तेजस्वी यादव (राजद) –
“यह मददाताओं के अधिकार पर हमला है। गरीबों, पिछड़ों, दलितों और प्रवासियों के वोट काटने की साजिश है। यह लोकतंत्र के साथ खिलवाड़ है।”
दीपांकर भट्टाचार्य (भाकपा माले) –
“यह अघोषित NRC है। बिहार को गिनी पिग की तरह इस्तेमाल किया जा रहा है। अगर यह सफल हुआ तो पूरे देश में लागू होगा। यह वोटबंदी है, डी-बोटर-लाइजेशन।”
विपक्ष का बड़ा आरोप
- कागजी कार्यवाही असंभव –
गांवों में डिजिटल साक्षरता कम है। प्रवासी मजदूर बाहर हैं। कौन फॉर्म डाउनलोड करेगा, कौन भरेगा? - फॉर्म 6 की शर्तें बदलीं –
पहले सिर्फ व्यक्ति का स्वघोषणा (self declaration) काफी था। अब माता-पिता की जानकारी भी जरूरी कर दी गई। - लोकतंत्र पर हमला –
अगर यह प्रक्रिया पूरी हुई, तो लाखों वोटरों का नाम कट सकता है। चुनाव आयोग की निष्पक्षता पर सवाल उठ रहे हैं।
चुनाव आयोग का तर्क
आयोग ने कहा कि तेजी से शहरीकरण, प्रवास, नई उम्र के वोटर और फर्जी वोटरों की पहचान के लिए यह कदम जरूरी है। लेकिन विपक्ष पूछ रहा है कि 2024 के लोकसभा चुनाव में यह मुद्दा क्यों नहीं उठा?
अगला कदम
विपक्ष ने चेतावनी दी है कि अगर यह फैसला वापस नहीं लिया गया तो 9 जुलाई की मजदूर हड़ताल के साथ ही बिहार में बड़ा आंदोलन होगा। उनका कहना है कि:
- यह सिर्फ बिहार नहीं, पूरे देश के लोकतंत्र का सवाल है।
- वोटर लिस्ट रिवीजन के बहाने दलित, पिछड़े, महिलाएं, गरीब, प्रवासी मजदूर – सबको निशाना बनाया जाएगा।