Home » समाज-संस्कृति » कहां, किस हाल में है औरंगज़ेब की कब्र जिसपर मचा है इतना बवाल

मुगल बादशाहों में सबसे सादा और गुमनाम सा है औरंगज़ेब का मकबरा

इस समय देश में औरंगज़ेब के नाम पर बवाल है, और बवाल वही काट रहे हैं जिन्हें औरंगज़ेब और देश के इतिहास का कोई ज्ञान नहीं और जो सिर्फ व्हाट्सएप्प और चंद बेसिरपैर के इतिहासकारों के बूते अपनी फर्जी देशभक्ति का झंडा गाड़ते रहते हैं। बहरहाल, इस बवाल को किनारे रख, आइए हम चलते हैं और देखते हैं कि वाकई औरंगज़ेब की कब्र कहां है और किस हाल में हैं।

महाराष्ट्र में एक जिला हुआ करता था औरंगाबाद। हुआ करता था, मैं इसलिए कह रहा हूं क्योंकि महाराष्ट्र सरकार ने 2022 में इसका नाम छत्रपति संभाजी नगर कर दिया था, हालांकि लोगों की जबान व जेहन में जिले व शहर का नाम अब भी औरंगाबाद ही है। जाहिर है कि औरंगाबाद नाम भी औरंगज़ेब पर ही पड़ा था। औरंगाबाद कई वजहों से प्रसिद्ध है और घुमक्कड़ों, सैलानियों में इसकी खास जगह है क्योंकि यहां से होकर आसपास कई जगहों पर जाया जा सकता है। औरंगाबाद में बीबी का मकबरा है जो उनकी बीवी दिलरास बालू बेगम की याद में औरंगज़ेब के बेटे आजम शाह ने बनवाया था। ताजमहल से मिलता-जुलता होने की वजह से इसे दक्कन का ताज भी कहा जाता है। औरंगाबाद से 30 किलोमीटर दूर वेरुल में घृष्णेश्वर ज्योतिर्लिंग है जो 12 ज्योतिर्लिंगों में से एक माना जाता है।

औरंगाबाद से 16 किलोमीटर के फासले पर दौलताबाद का किला है। यह किला मुगल काल से पहले का है और आपको याद दिला दूं कि यह वही जगह है जिसे 1327 में मुहम्मद बिन तुगलक ने अपनी राजधानी घोषित करके दिल्ली से समूचा दरबार और आबादी दौलताबाद ले जाने का हुक्म दे डाला था। उसी ने तुगलकी फैसलों की कहावत बना दी ती जो आज तक चल रही है।

फिर, औरंगाबाद जिन जगहों के लिए देश-दुनिया से सैलानी सबसे ज्यादा आते हैं, वह है अजंता व ऐलोरा की गुफाएं। ये दोनों ही यूनेस्को की विश्व धरोहर की सूची में आती हैं। अजंता की गुफाएं औरंगाबाद से तकरीबन सौ किलोमीटर की दूरी पर हैं। वहीं, एलोरा की गुफाएं अलग रास्ते पर लेकिन औरंगाबाद से थोड़ा नजदीक हैं, महज 30 किलोमीटर की दूरी पर।

तो जब हम औरंगाबाद से ऐलोरा की गुफाओं की तरफ जब जाते हैं तो पहले दौलताबाद आता है और उसके बाद ऐलोरा से छह-सात किलोमीटर पहले आता है खुल्दाबाद कस्बा, औरंगाबाद से कुल 26 किलोमीटर की दूरी पर। अजंता, ऐलोरा या घृष्णेश्वर जाने वाले सैलानियों में से महज एक-दो फीसदी ही यानी सौ में से केवल एक-दो खुल्दाबाद आते हैं।

खुल्दाबाद बड़ी अहमियत वाली जगह मानी जाती है और यह कस्बा औरंगाबाद से भी पुराना है। खुल्दाबाद का मतलब है, जहां जन्नत आबाद हो। यह सूफी-संतों की जगह रही है। कहा जाता है कि जब मुहम्मद बिन तुगलक ने राजधानी दिल्ली की जगह दौलताबाद करने का आदेश दिया था तो उस समय कई सूफी-संत भी हुक्म मानकर यहां चले आए थे, और उनमें से ज्यादातर दौलताबाद के निकट रौजा आकर बस गए जो खुल्दाबाद का पहला नाम हुआ करता था। अजमेर के ख्वाज़ा मोइनुद्दीन चिश्ती जिस परंपरा से आते हैं, उस चिश्ती परंपरा के कई सूफियों ने रौजा यानी खुल्दाबाद में अपना ठिकाना बनाया था। उन्हीं में से एक थे हजरत ख्वाज़ा ज़ैनुद्दीन हुसैनी चिश्ती जिन्हें औरंगज़ेब अपना मुर्शीद मानते थे। हालांकि वह औरंगजेब से 327 साल पहले 1370 ईस्वी में ही गुज़र चुके थे। यही वजह थी कि औरंगजेब ने अपनी संतानों को यह बता दिया था कि वह दुनिया में किसी भी जगह पर आखिरी सांस लें, उन्हें दफन यहीं खुल्दाबाद में जैनुद्दीन चिश्ती के मकबरे के बगल में किया जाए। लिहाजा औरंगजेब को यहीं खुल्दाबाद में दफन किया गया था और यहीं उनकी कब्र है।

आइए, चलते हैं उनकी कब्र की ओर। दरअसल औरंगजेब ने आखिरी सांस ली थी अहमदनगर के निकट भिंगर में। वहां से उनके बेटे आजम शाह व बेटी ज़ीनत-उन-निस्सा उन्हें रौजा लेकर आए और यहां उन्हें दफन किया। अहमदनगर में भी जहां मरने के बाद कुछ वक्त उन्हें रखा गया था, वहां एक मकबरा बताया जाता है। औरंगजेब की ख़्वाहिश के अनुसार खुल्दाबाद में उनकी बेनाम कब्र बिना किसी छत के कच्ची रखी गई थी और उस पर मिट्टी में एक पौधा लगाया गया था। पहले यहां मिट्टी का ही फर्श और लकड़ी की जाली थी। लेकिन अंग्रेज वायसराय कर्जन ने कब्र पर सफेद संगमरमर लगवाया और उसके चारों तरफ संगमरमर की ही जाली लगवाई। हालांकि कुछ इतिहासकारों का यह भी कहना है कि कर्जन से पहले हैदराबाद के निजाम ने भी इस जगह को पक्का करने की कोशिश की थी। फिर भी औरंगज़ेब से पहले के सारे मुगल बादशाहों के मकबरे से तुलना करें तो यह मकबरा बेहद साधारण सा है, यहां तक कि तमाम नवाबों, सुल्तानों, निजामों और सूफी संतों के मकबरे से भी बेहद साधारण। अब यह बात बड़ी अजीब लगती है कि जिस औरंगज़ेब ने किसी भी मध्यकालीन शासक की तुलना में सबसे लंबे समय तक राज किया और जिसके शासन में मुगलों का तकरीबन पूरे भारतीय प्रायद्वीप पर कब्जा था, और जिसके बारे में हर तरह के किस्से सुनाए जाते हैं, वह हमेशा चाहता था कि उसकी मौत के बाद उसे याद तक न रखा जाए। यह अलग बात है कि उनकी मौत के तीन सौ बीस साल बाद भी उनका नाम लेकर देश में आग लगाई जा रही है। इतिहासकार बताते हैं कि औरंगजेब ने अपनी कच्ची कब्र पर आने वाले खर्च के लिए भी धन अपने आखिरी सालों में टोपियां सिलकर पहले ही जुटा लिया था।

जहां औरंगजेब की कब्र है, वह दरअसल पहले ख्वाज़ा जैनुद्दीन चिश्ती की दरगाह का ही परिसर था। जैनुद्दीन की मजार से जहां पानी बहकर आता था, वहीं औरंजगेब को दफनाया गया। औरंगजेब के बाद इसी परिसर में उनके बेटे व उत्तराधिकारी मोहम्मद आजम शाह व उनकी बेगम जहांज़ेब बानू बेगम को भी दफनाया गया।

खुल्दाबाद में ही औरंगज़ेब के सिपहसालार रहे और बाद में हैदराबाद के पहले निजाम बने आसफ जाह प्रथम और उनके बेटे दूसरे निजाम नासिर जंग का भी मकबरा है।

जब आप ख्वाजा जैनुद्दीन चिश्ती की दरगाह और उसमें औरंगजेब की कब्र देखकर बाहर निकलते हैं, तो सामने ही सड़क के उस पार ख्वाजा शेख बुरहानुद्दीन ग़रीब की दरगाह है। बुरहानुद्दीन दरअसल सूफी संत निजामुद्दीन औलिया के शिष्य और उत्तराधिकारी थे और जैनुद्दीन चिश्ती के पूर्ववर्ती। इन्हीं के नाम पर बुरहानपुर शहर स्थापित किया गया था।

आप चाहें तो अगली बार जब औरंगाबाद जाएं तो खुल्दाबाद जा सकते हैं, औरंगजेब की कब्र को देखने। लेकिन जिस बादशाह ने अपने मरने के बाद खुद को याद रखे जाने तक की ख्वाहिश नहीं की और अपनी कब्र को भी कच्चा और गुमनाम छोड़ने को कहा, उसकी कब्र उखाड़कर कोई जरा भी उसकी विरासत को चोट नहीं पहुंचा पाएगा।

उपेंद्र स्वामी

पैदाइश और पढ़ाई-लिखाई उदयपुर (राजस्थान) से। दिल्ली में पत्रकारिता में 1991 से सक्रिय। दैनिक जागरण, कारोबार, व अमर उजाला जैसे अखबारों में लंबे समय तक वरिष्ठ समाचार संपादक के रूप में कार्य। वेब मीडिया का अनुभव व अध्यापन। फ़ोटोग्राफ़ी और घुमक्कड़ी का शौक। ट्रेकिंग व बाइकिंग में गहरी रुचि। ट्रैवल पर मासिक पत्रिका आवारा मुसाफ़िर का प्रकाशन। अमर्त्य सेन, ज्य़ॉं द्रेज, शेरिल पेयर, अमिता बाविस्कर, डोमिनीक लापिएर जैसे लेखकों की किताबों का हिंदी में अनुवाद।

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