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Adivasi Hindu Hai Ya Nahin: बेबाक भाषा के पाइंट टू पाइंट कार्यक्रम में पत्रकार मुकुल सरल बात कर रहे हैं आदिवासियों की। इसकी भी, कि क्यों आदिवासी अपने को हिंदू धर्म से अलग मानते हैं और क्यों बीजेपी उनके हिंदूकरण पर आमादा है।

एक नया दौर चला है जिसमें हर चीज़ का हिंदूकरण किया जा रहा है। चाहे वो सड़क-चौराहे हों, कोई भाषा-बोली हो, कोई रहन-सहन, खानपान, पहनावा। चाहे कोई धर्म-मज़हब, संप्रदाय हो। हर किसी को हिंदू बनाने और बताने और इसके जरिये अपना वर्चस्व स्थापित करने की कोशिश या कहें ज़िद आरएसएस–बीजेपी के राज में इन दिनों बहुत ज़्यादा दिखाई दे रही है। 

चाहे इसकी वजह से समाज का बंटवारा हो, हिंसा हो, लोग मारे जाएं उन्हें कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता। 

वर्चस्व और बंटवारे की राजनीति का जीता-जागता उदाहरण है मणिपुर। जहां कुकी और मैतीय समुदाय के बीच दरार इस क़दर बढ़ चुकी है कि अब एक खाई का रूप ले चुकी है और उसकी वजह से मणिपुर दो साल से बुरी तरह जल रहा है, झुलस रहा है। 

झारखंड में विधानसभा चुनाव के दौरान हमने देखा कि वहां आदिवासियों के बीच बंटवारा कर उन्हें हिंदू फोल्ड में लाने की कोशिश की गई ताकि वोट हासिल किए जा सकें। 

कौन हैं आदिवासी

आदिवासी, दो शब्दों ‘आदि’ और ‘वासी’ से मिल कर बना है जिसका अर्थ है आदिकाल से इस देश में निवास करने वाले। इसी वजह से आदिवासियों को मूलनिवासी भी कहा जाता है। लेकिन बीजेपी की कोशिश है कि आदिवासियों को वनवासी कहा जाए ताकि उन्हें हिंदू मान्यता के अनुसार राम और रामायण से जोड़कर हिंदू साबित किया जा सके। 

आदिवासी और वनवासी में बड़ा भारी फ़र्क़ है। वनवासी कोई भी हो सकता है जो वन या जंगल में जाकर रहने लगे, जैसे 14 साल के वनवास के दौरान राम वनवासी थे, लेकिन आदिवासी नहीं थे। आदिवासी तो जो हमेशा से वहीं रहता आया है या जिसका मूल निवास जंगल है या था वो बाद में भले ही गांव या शहरों में बस गया।  

2011 जनगणना के अनुसार भारत में आदिवासियों की जनसंख्या 8.6 प्रतिशत है। 

भारतीय संविधान में आदिवासियों के लिए एसटी यानी शिड्युल ट्राइब्स यानी ‘अनुसूचित जनजाति’ नाम का प्रयोग किया गया है और इन्हें संविधान की पांचवी अनुसूची में मान्यता दी गई है। भारतीय संविधान पांचवीं और छठी अनुसूचियों के तहत शासन में जनजातीय क्षेत्रों को स्वायत्तता प्रदान करता है। पांचवीं अनुसूची अनुसूचित क्षेत्रों व अनुसूचित जनजातियों के प्रशासन एवं नियंत्रण से संबंधित प्रावधानों को जोड़ती है। इसमें जनजातियों के कल्याण के लिए जनजाति सलाहकार परिषद के गठन का प्रावधान है जो एक संवैधानिक निकाय है।

भारत में 461 जनजातियां हैं, जिसमें से 424 जनजातियां भारत के सात क्षेत्रों में बंटी हुई हैं।

आदिवासी मुख्य रूप से भारत के ओडिशा, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान, झारखंड, अंडमान-निकोबार, सिक्किम, त्रिपुरा, मणिपुर, मिज़ोरम, मेघालय, नगालैंड और असम में रहते हैं। यहां इनकी आबादी बहुसंख्यक है। इनके अलावा भी आदिवासी या जनजाति समुदाय भारत के कई राज्यों गुजरात, महाराष्ट्र, आंध्र प्रदेश, बिहार, कर्नाटक और पश्चिम बंगाल आदि में रहते हैं। यहां इनकी आबादी अल्पसंख्यक है। 

भारत के प्रमुख आदिवासी समुदाय

 भारत के प्रमुख आदिवासी समुदायों में गोंड, हल्बा ,मुण्डा, खड़िया, बोडो, कोल, भील,नायक, सहरिया, संथाल ,भूमिज, हो, उरांव, बिरहोर, पारधी, असुर, भिलाला आदि हैं।

इन सबकी अपनी विशिष्ट मान्यताएं और भाषाएं हैं। आदिवासी भाषाओं में ‘भीली’ बोलने वालों की संख्या सबसे ज़्यादा है जबकि दूसरे स्थान पर ‘गोंडी’ भाषा और तीसरे स्थान पर ‘संताली’ भाषा है। 

भारतीय राज्यों में एकमात्र झारखण्ड में ही 5 आदिवासी भाषाओं – संताली, मुण्डारी, हो, कुड़ुख और खड़िया – को 2011 में दूसरी राज्यभाषा का दर्जा प्रदान किया गया।

आपको मालूम है कि भारत की सौ से भी ज़्यादा मुख्य भाषाओं में से 22 को ही संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल किया गया है। यानी राजभाषा का दर्जा दिया गया है। इनमें केवल संताली और बोड़ो ही आदिवासी भाषाएं हैं। इन्हें भी हाल में शामिल किया गया।  

लेकिन इसके बाद भी भाषाओं के हिंदीकरण और फिर हिंदूकरण का प्रयास तेज़ है। इस राजनीति के चलते आदिवासी भाषा बोलने वाले लगातार कम हो रहे हैं और जो बोलते हैं उन्हें पिछड़ा समझा जाता है। 

भारत की चंदा समिति ने सन् 1960 में अनुसूचति जनजातियों के अंर्तगत किसी भी जाति को शामिल करने के लिये 5 मानक निर्धारित किए थे–

1- भौगोलिक एकाकीपन. 2- विशिष्ट संस्कृति, 3- पिछड़ापन, 4- संकुचित स्वभाव, 5- आदिम जाति के लक्षण

मणिपुर में इसी पर विवाद हुआ। मणिपुर में कुकी और नगा समुदाय जनजाति के अंतर्गत आता है, लेकिन वहां एक कोर्ट आदेश के बहाने बहुसंख्यक और प्रभावशाली आबादी मैतीय जो मुख्यत: इम्फाल घाटी में रहती है और शासन-सरकार में जिसका वर्चस्व है, उसे भी जनजाति का दर्जा दे दिया गया, इसी को लेकर कुकी और मैतीय आमने-सामने हैं और सरकार ने इस बंटवारे और तनाव को संभालने की बजाय इस आग को और भड़काया और वहां के पूर्व मुख्यमंत्री बीरेन सिंह पूरी राज्य की आबादी की बजाय मैतीय समुदाय के नेता बन गए। 

बीजेपी यही पूरे देश में करना चाहती है। जाति-समुदाय में बंटवारा कर एक ख़ास जाति-समुदाय को बढ़ावा देना और फिर वोट के लिए सभी को हिंदू कहना और हिंदू एक हो, बंटेंगे तो कटेंगे जैसे नारे देना। यह अपने आप में विरोधाभास है। 

झारखंड में चुनाव के दौरान बीजेपी के नेता, मंत्री, मुख्यमंत्री और गृहमंत्री-प्रधानमंत्री तक आदिवासियों को बांग्लादेशी घुसपैठियों का डर दिखाकर हिंदू फोल्ड में लाने की कोशिश करते रहे, जबकि आदिवासी ख़ुद को हिंदू नहीं मानते। 

आदिवासियों का धर्म

आदिवासियों का अपना धर्म है। हिंदू धर्म और आदिवासी धर्म में जो बेसिक फ़र्क़ है वह बहुत साफ़ है। हिंदू मूर्ति पूजक हैं और आदिवासी प्रकृति-पूजक हैं। आदिवासी ख़ासतौर पर जंगल, पहाड़, नदी, चांद-सूरज की पूजा करते हैं। इनके अपने ग्राम देवता भी हैं। 

भारत में 1871 से लेकर 1941 तक हुई जनगणनाओं में आदिवासियों को अन्‍य धर्मों से अलग धर्म में गिना गया है। जिसे ट्राइबल रिलिजन या ट्राइब्स समेत कई नामों से दर्ज किया गया। लेकिन 1951 की जनगणना के बाद से आदिवासियों को अलग धर्म के रूप में गिनना बंद कर दिया गया।

हालांकि समय के साथ आदिवासियों में भी काफी बदलाव हुआ और इन्होंने हिंदू, ईसाई और इस्लाम धर्म को भी अपनाया है। लेकिन अब जिस तरह सभी आदिवासियों के हिंदूकरण का प्रयास तेज़ हुआ है इसलिए प्रतिरोध स्वरूप आदिवासी बड़े पैमाने पर अपनी धार्मिक पहचान के लिए संगठित हो रहे हैं और भारत सरकार से जनगणना में अपने लिए अलग से सरना कोड यानी आदिवासी धर्म कोड की मांग कर रहे हैं।

सरना कोड क्या है

सरनावाद या सरना कोड या सरना धोरोम का अर्थ है “पवित्र जंगल का धर्म”। 

आमतौर पर मुंडा, हो, संथाल, भूमिज और उरांव जनजाति के लोग सरना धर्म का पालन करते हैं। यह धर्म पीढ़ी दर पीढ़ी चली आ रही मौखिक परंपराओं पर आधारित है। 

तो साफ़ है कि आदिवासी ख़ुद को हिंदू नहीं मानते और बीजेपी की पूरी रणनीति है कि उन्हें किसी भी तरह डरा, धमका कर हिंदू फोल्डर में लाया जाए और इसके लिए सबसे बड़ा हथियार है मुसलमानों का डर। हालांकि महाराष्ट्र में भी जनजाति हैं लेकिन वहां वह अल्पसंख्यक है तो वहां यह बड़ा मुद्दा नहीं है लेकिन झारखंड एक आदिवासी बहुल राज्य है। यहां कुल 32 जनजातियां हैं, जिनकी जनसंख्या झारखंड की आबादी का क़रीब 26 प्रतिशत है। और यहांं विधानसभा की 81 सीटों में 28 सीटें जनजाति के लिए आरक्षित हैं इसलिए यहां पूरा चुनाव आदिवासियों पर फोकस करके लड़ा गया। 

इसलिए प्रधानमंत्री मोदी झारखंड में कहते हैं कि ये घुसपैठिये आपकी रोटी–बेटी और माटी छीन रहे हैं। यहां की आदिवासी महिलाओं से शादी करके उनके नाम की ज़मीन हड़प रहे हैं। 

जबकि नियम कुछ और कहता है– हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम की धारा 2 (2) के अनुसार, पुरुष और महिला उत्तराधिकारियों के लिए समान हिस्से की गारंटी देने वाला क़ानून अनुसूचित जनजाति के सदस्यों पर लागू नहीं होता है।

ऐसे में अनुसूचित जनजाति की बेटियां पिता की संपत्ति की हक़दार बनने से वंचित रह जाती हैं। लेकिन सुप्रीम कोर्ट के 2022 के निर्देश के बाद भी इस अधिनियम में सुधार को लेकर कुछ नहीं किया गया। 

साफ़ है कि जब आदिवासी महिलाओं को पैतृक संपत्ति में हिस्सा ही नहीं मिलता, फिर उनसे शादी करके भी कोई कैसे उनका पैतृक हिस्सा या ज़मीन हथिया सकता है। यानी मोदी जी भ्रामक प्रचार करते रहे। 

गृहमंत्री अमित शाह ने भी बार-बार यही मुद्दा उठाया। चुनाव प्रचार के दौरान हेमंत सोरेन सरकार पर हमला बोलते हुए उन्होंने कहा कि “इस सरकार ने झारखंड के दरवाज़े बांग्लादेशी घुसपैठियों के लिए खोल दिए हैं। हमारी सरकार राज्य में आएगी तो इन घुसपैठियो को चुन-चुनकर बाहर निकालेगी।”

मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन ने इसके जवाब में कहा कि “मैं जानना चाहता हूं कि बांग्लादेश के साथ आपका अंदर ही अंदर कोई समझौता है क्या। किस आधार पर आपने बांग्लादेश की पूर्व प्रधानमंत्री शेख़ हसीना को यहां शरण दे रखी है।”

एक चुनावी सभा में हेमंत ने कहा– झारखंड में उत्पादित बिजली बांग्लादेश को दी जा रही है, जबकि राज्य के लोगों को इन बिजली संयंत्रों से होने वाले प्रदूषण से जूझना पड़ रहा है। क्या केंद्र का यह कर्तव्य नहीं है कि वह सीमाओं की रक्षा करे और घुसपैठ को रोके? राज्य सरकारों की इसमें कोई भूमिका नहीं है। घुसपैठिए आपके (भाजपा) शासित राज्यों से भारत में प्रवेश करते हैं, आप वहां घुसपैठ को क्यों नहीं रोकते? सीएम सोरेन ने कहा कि वे (भाजपा) खुद स्वीकार करते हैं कि उनके राज्य में घुसपैठ होती है, फिर भी वे झारखंड को जिम्मेदार ठहराते हैं। 

बीबीसी की एक ख़बर के अनुसार ‘बांग्लादेशी घुसपैठ’ को लेकर साल 2022 में जमशेदपुर के रहने वाले दानियाल दानिश ने झारखंड हाई कोर्ट में एक जनहित याचिका डाली थी।

लेकिन कोर्ट में गृह मंत्रालय ने अपने जवाब में कहा है, “झारखंड राज्य सहित देश में रहने वाले ऐसे अवैध प्रवासियों की संख्या के बारे में सटीक आंकड़े उपलब्ध नहीं हैं।” 

घुसपैठ के बारे में 2020 में राज्यसभा में एक सवाल के जवाब में तत्कालीन गृह राज्य मंत्री नित्यानंद राय ने कहा था कि पिछले तीन साल में ग़ैर-क़ानूनी तरीक़े से भारत में रह रहे बांग्लादेशियों की संख्या भारत में तक़रीबन 1 लाख 10 हज़ार है। 

ध्यान रखिए ये पूरे भारत की बात हो रही है, अकेले झारखंड की नही और ये भी ऐसे बांग्लादेशी हैं जिनका पूरा ब्योरा भारत सरकार के पास होगा क्योंकि ये वीज़ा लेकर ही भारत में आए थे, लेकिन वीज़ा की तारीख़ निकल जाने के बाद भी भारत में रह रहे थे। तो इनके तो पूरे दस्तावेज़ सरकार के पास होने चाहिए। तो फिर इसे मुद्दा क्यों बनाया गया। 

कुल मिलाकर दरअसल झारखंड या देश के आदिवासी समाज की समस्या घुसपैठिया नहीं बल्कि सरकार की नीतियां हैं। 

आप जानते हैं कि आदिवासियों के लिए जल–जंगल–ज़मीन ही उनका धर्म है, उनका जीवन है, उनके जीवन का आधार हैं और वे इन्हें बचाने के लिए लंबे समय से सरकार की कथित विकास की नीतियां जो इनके लिए विनाश से कम नहीं हैं, उसके ख़िलाफ़ लड़ रहे हैं। सरकार ने इसी लड़ाई को कमज़ोर करने के लिए आदिवासियों में नक्सली और ग़ैर नक्सली का बंटवारा किया और फिर इसके नाम पर दोनों पर क़हर ढाया और एक तरह से अपनी ही जनता के ख़िलाफ़ एक युद्ध छेड़ दिया। 

आदिवासियों के जल–जंगल–ज़मीन और राज्य की खनिज संपदा को अगर आज सबसे ज़्यादा ख़तरा है तो सरकार की पूंजीपरस्त सोच और अनियंत्रित विकास की नीतियों से ही है। झारखंड एक खनिज संपदा से भरपूर राज्य है। यहां देश की कुल 40 फ़ीसदी खनिज संपदा है। और मोदी जी के प्रिय पूंजीपतियों को यह सब चाहिए। और यह सब विकास के नाम पर है, लेकिन विकास की हक़ीक़त यह है कि इतनी खनिज संपदा होने के बाद भी झारखंड देश का दूसरा सबसे ग़रीब राज्य है। 

आदिवासी बहुल छत्तीसगढ़ राज्य का भी उदाहरण आपके सामने है। वहां किस तरह हसदेव अरण्य को बर्बाद किया जा रहा है सबके सामने है। 

छत्तीसगढ़ के सरगुजा और कोरबा जिले में हसदेव अरण्य 1,70,000 हेक्टेयर में फैला हुआ है। हसदेव के घने जंगलों में हो रहे कोयला खनन का विरोध वहां के आदिवासी और एक्टिविस्ट लंबे समय से कर रहे हैं। 

विरोध करने वाले सामाजिक संगठनों का आरोप है कि जंगलों की कटाई और खनन को लेकर ग्राम सभा से किसी प्रकार की कोई अनुमति नहीं ली गई है, जो दस्तावेज़ दिखाए गए वो फ़र्ज़ी है. फ़र्ज़ी दस्तावेज के माध्यम से कटाई के साथ ही खनन का कार्य किया जा रहा है, जिसका सीधा लाभ अडानी की कंपनी को मिल रहा है।

कांग्रेस और लोकसभा में विपक्ष के नेता राहुल गांधी ने इसे लेकर एक्स पर पोस्ट भी की थी, जिसमें कहा था कि “छत्तीसगढ़ में कांग्रेस की सरकार के दौरान विधानसभा में सर्वसम्मति से हसदेव के जंगल को न काटने का प्रस्ताव पारित हुआ था – ‘सर्वसम्मति’ मतलब विपक्ष यानी तत्कालीन भाजपा की भी सम्मिलित सहमति! मगर, सरकार में आते ही न तो उन्हें यह प्रस्ताव याद रहा और न हसदेव के इन मूल निवासियों की पीड़ा और अधिकार. ‘बहुजन विरोधी भाजपा’ अपने और अपने मित्रों के स्वार्थ की खातिर आम नागरिकों और पर्यावरण को भयावह हानि पहुंचाने को तैयार है।”

साफ़ है कि आदिवासियों को ख़तरा बांग्लादेशी घुसपैठिया ने नहीं भाजपाई घुसपैठिया से है जो विकास के नाम पर आदिवासियों के जल-जंगल-ज़मीन और धर्म और भाषा सभी पर हमला कर रहे हैं। 

मुकुल सरल

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