July 27, 2025 7:29 pm
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डिकोडिंग आरएसएस: मुस्लिम धर्मगुरुओं से संवाद और जमीनी सच्चाई

हिंदू राष्ट्र का एजेंडा छोड़े बिना मोहन भागवत की मुस्लिम उलेमा से बैठक का कोई अर्थ नहीं

देश में जब धार्मिक ध्रुवीकरण अपने चरम पर है, उसी दौरान राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS) के सरसंघचालक मोहन भागवत की ऑल इंडिया इमाम ऑर्गनाइजेशन के साथ तीन घंटे लंबी क्लोज-डोर बैठक होती है। यह मीटिंग दिल्ली में इमाम संगठन के मुखिया इल्यासी की पहल पर आयोजित हुई जिसमें करीब 60 लोग मौजूद थे।

बैठक के बाद दोनों पक्षों की ओर से शांति, संवाद और “देशहित सर्वोपरि” जैसे शब्द बोले गए। RSS प्रवक्ताओं ने कहा कि समस्याओं का हल संवाद से ही निकलता है — ऊपर से शुरू होकर यह संवाद नीचे तक पहुंचना चाहिए। यानी मंदिर-मस्जिद, पंडित-मौलाना तक।

लेकिन सवाल उठता है — क्या यह संवाद वाकई ईमानदार है या केवल प्रतीकात्मक?

बातचीत की सच्चाई बनाम ज़मीनी हकीकत

यह पहली बार नहीं है जब मोहन भागवत या आरएसएस पदाधिकारियों ने मुस्लिम संगठनों के साथ मुलाकात की हो। 2019 में भी जमात-ए-हिंद के नेताओं से मीटिंग हुई थी। 2022 में SY कुरैशी, नजीब जंग, जमीर उद्दीन जैसे मुस्लिम बुद्धिजीवियों से मुलाकात हुई थी। उस मीटिंग में कुरैशी साहब ने ‘The Population Myth’ किताब भी भेंट की थी, जिसमें मुस्लिम जनसंख्या के बारे में RSS और दक्षिणपंथी संगठनों द्वारा फैलाए जा रहे भ्रम का वैज्ञानिक खंडन किया गया है।

दिलचस्प बात यह है कि भागवत ने इस किताब में लिखी बातों को मीटिंग के बाद के अपने सार्वजनिक भाषणों में भी दोहराया। लेकिन क्या इससे RSS के जमीनी रवैये में कोई बदलाव आया?

विचारधारा जस की तस

इन्हीं संवादों के बीच, हाल ही में RSS के नंबर दो मनमोहन वैद्य और होसबले जैसे नेताओं ने यह बयान दे डाला कि “समाजवाद और धर्मनिरपेक्षता” जैसे शब्द भारतीय संविधान की आत्मा नहीं हैं और उन्हें हटाया जाना चाहिए। इसी सोच को आगे बढ़ाते हुए भाजपा शासित राज्यों में गीता को स्कूलों में पढ़ाने की योजनाएं बन रही हैं।

यानी एक तरफ RSS मुस्लिम नेताओं से गलबहियां कर रहा है, दूसरी तरफ “हिंदू राष्ट्र” के एजेंडे को और मजबूती से आगे बढ़ा रहा है।

बहुलतावाद बनाम सांप्रदायिक राष्ट्र

RSS बार-बार ‘राम की संस्कृति’ की बात करता है। लेकिन क्या भारत की संस्कृति केवल राम की है? क्या उसमें कबीर, गुरु नानक, निजामुद्दीन औलिया, गांधी, आंबेडकर की कोई जगह नहीं? यह वही RSS है जिसने सावरकर और मनुस्मृति को संविधान से ऊपर माना है।

नेहरू ने भारत को “मिले-जुले विचारों का देश” कहा था। गांधी ने कहा था — “ईश्वर अल्ला तेरे नाम”। लेकिन RSS, इन मूल्यों को नहीं, बल्कि राम, गीता और पुराणों को राष्ट्र का सांस्कृतिक आधार बनाना चाहता है।

संवाद का दिखावा?

तीन घंटे की बातचीत से क्या निकला? क्या इससे मुसलमानों पर हो रहे हमले रुके? क्या मॉब लिंचिंग, मस्जिदों पर बुलडोजर, या हिजाब विरोधी अभियान रुके? ज़रा भी नहीं।

बल्कि इसके उलट, इन संवादों का इस्तेमाल अंतरराष्ट्रीय मंचों पर “विविधता में एकता” का चेहरा दिखाने के लिए किया जाता है, जबकि घरेलू नीति पूरी तरह बहुसंख्यकवाद की तरफ झुकी हुई है।

निष्कर्ष

संवाद तब सार्थक होता है जब उसके पीछे नीयत साफ हो। जब नीयत केवल PR (जनसंपर्क) हो, तो संवाद सिर्फ दिखावा बन जाता है।

मुस्लिम समाज अब यह सवाल पूछ रहा है कि क्या उन्हें केवल चुनाव के पहले बातचीत के लिए बुलाया जाएगा, और बाकी वक्त उनकी पहचान, पहनावे, खानपान, आस्था को टारगेट किया जाएगा?

अगर RSS वाकई संवाद चाहता है, तो उसे पहले अपने “हिंदू राष्ट्र” के एजेंडे से पीछे हटना होगा और भारत के संविधान को केंद्र में रखकर बातचीत करनी होगी। वर्ना यह तीन घंटे की बैठकें महज कैमरे के लिए की गई सजावटी कवायद रह जाएंगी।

राम पुनियानी

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