वोटबंदी पर संग्राम: क्या वाकई मतदाताओं को ही कटघरे में खड़ा कर दिया गया है?
बिहार में इस वक्त एक नई बहस छिड़ी है – कौन वोटर है और कौन नहीं? चुनाव आयोग द्वारा चलाया जा रहा Special Intensive Revision (SIR) अभियान, जिसे विपक्ष ‘वोट बंदी’ कह रहा है, ने गांव-गांव में हलचल मचा दी है। लगभग 8 करोड़ मतदाताओं पर दोधारी तलवार लटक रही है। लोगों से माता-पिता के जन्म प्रमाणपत्र तक मांगे जा रहे हैं। सवाल है – क्या ये प्रक्रिया लोकतंत्र के मूल अधिकार को ही छीनने की कवायद बनती जा रही है?
“माता-पिता को श्मशान घाट से उठा कर लाना पड़ेगा क्या?”
विजय कुमार, जो 1952 से चाय की दुकान चला रहे हैं, अपना दर्द बयां करते हैं:
“माता-पिता का जन पत्री लाकर दिये, फिर भी कहे नहीं होगा। माई-बाप का पत्री लाओ, तो पहले मोदी जी से पूछिये, उनका है क्या? चुनाव आयोग से पूछिये। प्रधानमंत्री का माता-पिता का जनम पत्री है, तब तो हमसे मांगें। जनता को डराना, सताना, यही नीति है।”
विजय जी का सवाल सीधा था – अगर खुद प्रधानमंत्री के पास अपने माता-पिता के सारे दस्तावेज नहीं हैं तो जनता से क्यों मांगा जा रहा है?
“हमने तो आधार और वोटर कार्ड दिया, और क्या करें?”
वार्ड में फॉर्म भरवा रहे अश्वनी कुमार (27 वर्ष) कहते हैं:
“2003 में मैं वोटर लिस्ट में नहीं था। अब मुझसे माता-पिता के जन्म का प्रूफ मांग रहे हैं। मैं तो वेस्ट बंगाल में पैदा हुआ, पिता बिहार के। इतनी पेचीदगी क्यों है? जो मांगें, वो दे रहे हैं। लेकिन वोटर आई कार्ड, आधार कार्ड और राशन कार्ड ही तो दिया, बाकी 11 दस्तावेज तो हमारे पास हैं ही नहीं।”
उन्होंने बिहार की गरीबी, पलायन, बेरोजगारी की बात भी की। कहा:
“जहाँ एजुकेशन नहीं है, जॉब सिक्योरिटी नहीं है, वहाँ लोग कैसे टिकेंगे? आज मुझसे पूछो माता-पिता का जन्म प्रमाणपत्र लाओ, मुश्किल है।”
“सब जगह तीन ही कागज दिए गए – आधार, वोटर आई कार्ड, राशन कार्ड”
प्रेम कुमार, गोलघर निवासी और पटना विश्वविद्यालय स्नातक बताते हैं:
“हमने खुद फॉर्म भरा। रसीद नहीं मिली। उमेश जी और बंटी जी को दे दिया, जो पॉलिंग बूथ पर बैठते हैं। किस पार्टी के हैं, नहीं जानते। लेकिन सिर्फ आधार और वोटर आई कार्ड ही मांगा गया।”
बीजेपी का नैरेटिव और जमीन का सच
पटना की गलियों में जहां भक्त वर्ग कह रहा है – “ठीक ही है, हमें फर्क नहीं पड़ता”, वहीं बड़ी संख्या में लोग भयभीत और गुस्से में हैं। वे मानते हैं कि अगर नाम कट गया, तो क्या होगा? हकीकत यह है कि 11 दस्तावेज मांगने की बात कागजों में है, जमीन पर सिर्फ तीन ही लिए जा रहे हैं, और वही चुनाव आयोग की वैध सूची में नहीं आते।
“क्या बिहारियों ने कोई गुनाह किया है?”
लोग पूछ रहे हैं:
- सिर्फ बिहार में ही क्यों?
- क्या सबसे ज़्यादा फर्जी वोटर बिहारी हैं?
- अगर यह प्रक्रिया सही है तो पूरे देश में लागू क्यों नहीं?
विजय कुमार की तर्कपूर्ण व्यथा इस पूरी वोट बंदी की प्रक्रिया पर सवाल खड़ा कर रही है:
“गरीब का बाल-बच्चा फुटपाथ पर मर रहा है। दुकान बंद हो गई, कमाई बंद। सरकार पूछ रही है माता-पिता का जन्म प्रमाणपत्र लाओ। पहले खुद दिखाओ प्रधानमंत्री जी।”
अंत में
ग्राउंड पर एक ही बात साफ दिखती है – यह प्रक्रिया लोगों को असहाय बना रही है। लोकतंत्र की बुनियाद वोट का अधिकार है। अगर वोट डालने के लिए भी जनता को बार-बार कटघरे में खड़ा किया जाएगा, तो संविधान का क्या होगा? यह सवाल हर बिहारी के दिल में उठ रहा है।